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विवेक चूडामणि प्रकारके निन्दनीय कर्म किये हैं उन्हींको ज्ञान हो जानेके उपरान्त यह विवेकपूर्वक कैसे कर सकता है ? विद्याफलं स्थादसतो निवृत्तिः
प्रवृत्तिरज्ञानफलं तदीक्षितम् । . तज्ज्ञाज्ञयोर्यन्मृगतृष्णिकादौ - नो चेद्विदो दृष्टफलं किमसात् ॥४२३॥
विद्याका फल असत्से निवृत्त होना और अविद्याका उसमें प्रवृत्त होना है। ये दोनों फल ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषोंकी मृगतृष्णा आदिकी प्रतीतिमें उसे जानने या न जाननेवालोंमें देखे गये हैं। नहीं तो [ यदि मूढ पुरुषके समान विद्वान्की भी असत् पदार्थों में प्रवृत्ति बनी रही तो विद्याका प्रत्यक्ष फल ही क्या हुआ?
अज्ञानहृदयग्रन्थेविनाशो यद्यशेषतः । अनिच्छोर्विषयः किन्नु प्रवृत्तेः कारणं स्वतः॥४२४॥
यदि अज्ञानरूप हृदयकी प्रन्थिका सर्वथा नाश हो जाय तो उस इच्छारहित पुरुषके लिये सांसारिक विषय क्या खतः ही प्रवृत्तिके कारण हो जायेंगे ?
वासनानुदयो भोग्ये वैराग्यस्य परोऽवधिः । अहंभावोदयाभावो बोधस्य परमोऽवधिः । लीनवृत्तेरनुत्पत्तिर्मर्यादोपरतेस्तु सा ॥४२५॥
भोग्य वस्तुओंमें वासनाका उदय न होना वैराग्यकी चरम अवधि है, चित्तमें अहंकारका सर्वथा उदय न होना ही बोधकी चरम सीमा है और लीन दुई वृत्तियोंका पुनः उत्पन्न न होनायह उपरामताकी सीमा है।
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