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विवेक-चूडामणि
१३४ रहित निर्विकल्प पूर्ण ब्रह्मका विद्वान् समाधि-अवस्थामें अपने अन्तःकरणमें साक्षात् अनुभव करते हैं। प्रकृतिविकृतिशून्यं भावनातीतभावं
समरसमसमानं मानसम्बन्धदूरम् । निगमवचनसिद्धं नित्यमसत्प्रसिद्धं ।
हृदि कलयति विद्वान्ब्रम पूर्ण समाधौ॥४१०॥ कारण और कार्यसे रहित, मानवी भावनासे अतीत, समरस, उपमारहित, प्रमाणोंकी पहुँचसे परे, वेद-वाक्योंसे सिद्ध, नित्य, अस्मत् ( मैं ) रूपसे स्थित पूर्ण ब्रह्मका विद्वान् समाधि-अवस्थामें अपने अन्तःकरणमें अनुभव करते हैं। अजरममरमस्ताभासवस्तुस्वरूपंdi.com
स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम् । शमितगुणविकारं शाश्वतं शान्तमेकं
हृदि कलयति विद्वान्ब्रह्म पूर्ण समाधौ ॥४११॥ अजर, अमर, आभासशून्य, वस्तुखरूप, निश्चल जलराशिके समान, नाम-रूपसे रहित, गुणोंके विकारसे शून्य, नित्य, शान्तखरूप और अद्वितीय पूर्ण ब्रह्मका विद्वान् समाधि-अवस्थामें हृदयमें साक्षात् अनुभव करते हैं। समाहितान्तःकरणः स्वरूपे
विलोकयात्मानमखण्डवैभवम् । विच्छिन्धि बन्धं भवगन्धगन्धितं
यत्नेन पुंस्त्वं सफलीकुरुष्व ॥४१२॥
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