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समाधिनितपण करके निष्क्रिय और निर्विकल्प होकर आनन्दपूर्वक ब्रह्माकारवृत्तिसे रहता है। समाहिता ये प्रविलाप्य बाह्य
श्रोत्रादि चेतः स्वमहं चिदात्मनि । त एव मुक्ता भवपाशबन्धै
नान्ये तु पारोक्ष्यकथाभिधायिनः ॥३५७॥ जो लोग श्रोत्रादि इन्द्रियवर्ग तथा चित्त और अहंकार इन बाह्य वस्तुओंको आत्मामें लीन करके समाधिमें स्थित होते हैं वे ही संसार-बन्धनसे मुक्त हैं, जो केवल परोक्ष ब्रह्मज्ञानकी बातें बनाते रहते हैं वे कभी मुक्त नहीं हो सकते। उपाधिभेदात्स्वयमेव Hin भिद्यते
चोपाध्यपोहे स्वयमेव केवलः। तसादुपाधेविलयाय विद्वा
न्वसेत्सदाकल्पसमाधिनिष्ठया ॥३५८॥ उपाधिके भेदसे ही आत्मामें भेदकी प्रतीति होती है और उपाधिका लय हो जानेपर वह केवल स्वयं ही रह जाता है, इसलिये उपाधिका लय करनेके लिये विचारवान् पुरुष सदा निर्विकल्प-समाधिमें स्थित होकर रहे ।
सति सक्तो नरो याति सद्भावं ह्येकनिष्ठया। कीटको भ्रमरं ध्यायन्भ्रमरत्वाय कल्पते ॥३५९॥
एकाग्रचित्तसे निरन्तर सत्वरूप ब्रह्ममें स्थित रहनेसे मनुष्य ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है, जैसे भ्रमरका भयपूर्वक ध्यान करते-करते कीड़ा भ्रमरखरूप ही हो जाता है ।
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