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अधिष्ठान-निरूपण ततो विकारा प्रकवरहमुखा
देहावसाना विषयाश्च सर्वे । क्षणेऽन्यथाभावितया हमीषा
मसत्त्वमात्मा तु कदापि नान्यथा ॥३५१॥ इसलिये अहंकारसे लेकर देहतक प्रकृतिके जितने विकार अथवा विषय हैं वे सभी क्षण-क्षणमें बदलनेवाले होनेसे असत्य हैं, आत्मा तो कभी नहीं बदलता, वह तो सदा ही एकरस रहता है। नित्याद्वयाखण्डचिदेकरूपो
बुद्धयादिसाक्षी सदसद्विलक्षणः । अहंपदप्रत्ययलक्षितार्थःHindi.com
प्रत्यक्सदानन्दघनः परान्मा ॥३५२॥ जो 'अहं' पदकी प्रतीतिसे लक्षित होता है वह नित्य आनन्दघन परमात्मा तो सदा ही अद्वितीय, अखण्ड, चैतन्यस्वरूप, बुद्धि आदिका साक्षी, सत्-असत्से भिन्न और प्रत्यक् (अन्तरतम) है । इत्थं विपश्चित्सदसद्विभज्य
निश्चित्य तत्त्वं निजबोधदृष्टया। ज्ञात्वा खमात्मानमखण्डबोधं
तेभ्यो विमुक्तः स्वयमेव शाम्यति ॥३५३॥ विद्वान् पुरुष इस प्रकार सत् और असत्का विभाग करके अपनी ज्ञान-दृष्टिसे तत्त्वका निश्चय करके और अखण्ड बोधखरूप आत्माको जानकर असत्पदार्थोंसे मुक्त होकर स्वयं ही शान्त हो जाता है।
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