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आत्मनिष्ठाका विधान
म
यदि मिथ्या दीखनेवाले [ इन बुद्धि आदि ] पदार्थोंमें द्रष्टा और दृश्य पदार्थोके खरूपको पृथक्-पृथक् करके, स्पष्ट बोधके कारण होनेवाला निःसन्देहपूर्वक बाधरहित पूर्ण विवेक हो जाय तो फिर विक्षेप नहीं होता और वह विवेक मायाजनित मोहबन्धनको भी काट डालता है। जिससे मुक्त हुए पुरुषको फिर [ जन्ममरणरूप] संसारकी प्राप्ति नहीं होती। परावरैकत्वविवेकवह्नि
देहत्यविद्यागहनं घशेषम् । किं स्यात्पुनः संसरणस्य बीज
मद्वैतभावं समुपेयुषोऽस्य ॥३४७॥ ब्रह्म और आत्माका एकत्वज्ञानरूप अग्नि अविद्यारूप समस्त वनको भस्म कर देता है। [अविद्याके सर्वथा नष्ट हो जानेपर ] जब जीवको अद्वैत-भावकी प्राप्ति हो जाती है तब उसको पुनः संसार-प्राप्तिका कारण ही क्या रह जाता है ! आवरणस्य
निवृत्ति
भवति च सम्यक्पदार्थदर्शनतः। मिथ्याज्ञानविनाश
स्तद्वद्विक्षेपजनितदुःखनिवृत्तिः ॥३४८॥ आत्मवस्तुका ठीक-ठीक साक्षात्कार हो जानेसे आवरणका नाश हो जाता है तथा मिथ्याज्ञानका नाश और विक्षेपजनित दुःखकी निवृत्ति हो जाती है।
वि.च.
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