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विवेक-चूडामणि
११२ __ अहंकारकी शक्ति जबतक बढ़ी-चढ़ी रहती है तबतक कोई विद्वान् उसका एकाएकी नाश नहीं कर सकता, क्योंकि जो निर्विकल्प-समाधिमें अविचल-भावसे स्थित हो गये हैं उनके अंदर भी वासनाएँ देखी जाती हैं।
अहंबुद्धथैव मोहिन्या योजयित्वावृतेर्बलात् । विक्षेपशक्तिः पुरुषं विक्षेपयति तद्गुणैः ॥३४४॥
मोहित कर देनेवाली अहंबुद्धिके साथ अपनी आवरणशक्तिके द्वारा पुरुषका संयोग कराकर विक्षेपशक्ति उस ( अहंबुद्धि) के गुणोंसे मनुष्यको विक्षिप्त कर देती है। . विक्षेपशक्तिविजयो विषमो विधातुं
www निःशेषमावरणशक्तिनिवृत्त्यभावे । दृग्दृश्ययोः स्फुटपयोजलवद्विभागे
नश्येत्तदावरणमात्मनि च स्वभावात् । निःसंशयेन भवति प्रतिबन्धशून्यो
विक्षेपणं न हि तदा यदि चेन्मृषार्थे ॥३४५॥ सम्यग्विवेकः स्फुटबोधजन्यो
विभज्य दृग्दृश्यपदार्थतत्त्वम् । छिनत्ति मायाकृतमोहबन्धं
__ यस्माद्विमुक्तस्य पुनर्न संसृतिः ॥३४६॥ आवरणशक्तिकी पूर्ण निवृत्तिके बिना विक्षेप-शक्तिपर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । दूध और जलके समान द्रष्टा और श्यके अलग-अलग होनेका स्पष्ट ज्ञान हो जानेपर आत्मामें छायी हुई वह आवरण-शक्ति अपने आप ही नष्ट हो जाती है।
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