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"" ध्यान-विधि अनात्मचिन्तनं त्यक्त्वा कश्मलं दुःखकारणम् । चिन्तयात्मानमानन्दरूपं यन्मुक्तिकारणम् ॥३८०॥
दुःखके कारण और मोहरूप अनात्म-चिन्तनको छोड़कर आनन्दखरूप आत्माका चिन्तन करो, जो साक्षात् मुक्तिका कारण है। एष स्वयंज्योतिरशेषसाक्षी
विज्ञानकोशे विलसत्यजत्रम् । लक्ष्य विधायैनमसद्विलक्षण
मखण्डवृश्यात्मतयानुभावय ॥३८१॥ यह जो स्वयंप्रकाश सबका साक्षी निरन्तर विज्ञानमय कोशमें विराजमान है, समस्त अनित्य पदार्थोंसे पृथक् इस परमात्माको ही अपना लक्ष्य बनाकर इसीका [ तैलधारावत् ] अखण्ड-वृत्तिसे, आत्म-भावसे चिन्तन करो।
एतमच्छिन्नया वृत्त्या प्रत्ययान्तरशून्यया। उल्लेखयन्विजानीयात्स्वस्वरूपतया स्फुटम् ॥३८२॥
अन्य प्रतीतियोंसे रहित अखण्ड-वृत्तिसे इस एकहीका चिन्तन करते हुए योगी इसीको स्पष्टतया अपना स्वरूप जाने ।
अत्रात्मत्वं दृढीकुर्वमहमादिषु सन्त्यजन् ।
उदासीनतया तेषु तिष्ठेद्घटपटादिवत् ॥३८३॥ . इस प्रकार इस परमात्मामें ही आत्मभावको दृढ़ करता हुआ और अहंकारादिमें आत्मबुद्धि छोड़ता हुआ उनकी ओरसे शरीरसे भिन्न घट-पट आदि वस्तुओंके समान उदासीन हो जाय ।
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