________________
विवेकचूडामणि
१०८
जो अद्वितीय ब्रह्मरूप सत्य पदार्थकी खोज करता है वही मुक्त होकर अपने नित्य महत्त्वको प्राप्त करता है और जो मिथ्या दृश्य पदार्थोंके पीछे पड़ा रहता है वह नष्ट हो जाता है; ऐसा ही साधु और चोरके विषय में* देखा भी गया है । यतिरसदनुसन्धिं बन्धहेतुं विहाय
स्वयमय महमस्मीत्यात्मदृष्टयैव तिष्ठेत् । सुखयति ननु निष्ठा ब्रह्मणि स्वानुभूत्या
हरति परमविद्याकार्यदुःखं प्रतीतम् ॥ ३३४ ॥ यतिको चाहिये कि असत्-पदार्थोंका पीछा छोड़कर "यह साक्षात् ब्रह्म ही मैं हूँ' ऐसी आत्मदृष्टिमें ही स्थिर होकर रहे । अपने अनुभवसे उत्पन्न हुई ब्रह्मनिष्ठा ही अविद्याके कार्यभूत इस प्रतीयमान प्रपञ्चके दुःखको दूर करके परम सुख देती है । बाह्यानुसन्धिः परिवर्धयेत्फलं
दुर्वासनामेव ततस्ततोऽधिकाम् ।
ज्ञात्वा विवेकैः परिहृत्य बाह्यं
स्वात्मानुसन्धिं विदधीत नित्यम् ||३३५ ॥
* इस प्रसंगका छान्दोग्योपनिषद् ( ६ । १६ । १-२ ) में इस प्रकार वर्णन किया है कि जिस व्यक्तिपर चोरी करनेका सन्देह होता है उसे राजपुरुष तपाया हुआ परशु देते हैं । यदि उसने चोरी की होती है और वह 'मैंने चोरी नहीं की' ऐसा कहकर मिथ्या भाषण करता है तो उससे दग्ध हो जाता है और तब राजपुरुष भी उसे मार डालते हैं; और यदि वह वास्तवमें चोर नहीं होता तो सत्यसे सुरक्षित रहने के कारण वह उस परशुसे दग्ध नहीं होता और उसे राजपुरुष भी छोड़ देते हैं ।
http://www.ApniHindi.com