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अभ्यास-निरास
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ब्रह्मण्यात्मत्वदाढर्याय स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८४॥
तत्त्वमस्यादिवाक्योत्यब्रह्मात्मैकत्वबोधतः
'तत्त्वमसि' ( छान्दो० ६ । ८) आदि महावाक्योंसे हुए ब्रह्म और आत्माके एकत्वज्ञानसे ब्रह्ममें आत्मबुद्धिको दृढ़ करने के लिये अपने अध्यासको दूर करो ।
अभावस्य
देहेऽस्मिन्निःशेषविलयावधि ।
सावधानेन युक्तात्मा स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८५॥
इस देहमें जो अहंभाव ( मैंपन ) हो रहा है, उसका जबतक पूर्णतया लय न हो जाय, तबतक सावधानतापूर्वक युक्त चित्तसे अपने अध्यासको दूर करो I ndi, com प्रतीतिर्जीवजगतोः स्वभवद्भाति यावता । तावन्निरन्तरं विद्वन्स्वाध्यासापनयं
कुरु ॥ २८६ ॥
जबतक स्वप्नके समान जीव और जगत् की प्रतीति हो रही है, तबतक हे विद्वन् ! अपने आत्मामें हुए इस अध्यासका निरन्तर त्याग करते रहो ।
निद्राया लोकवार्तायाः शब्दादेरपि विस्मृतेः । चिनावसरं दत्त्वा चिन्तयात्मानमात्मनि ॥ २८७॥
निद्रा, लौकिक बातचीत अथवा शब्दादि किसी से भी आत्मविस्मृतिको अवसर न देकर अर्थात् किसी भी कारण से स्वरूपानुसन्धानको न भूलकर अपने अन्तःकरणमें निरन्तर आत्माका चिन्तन करो ।
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