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विवेक-चूडामणि
तमो द्वाभ्यां रजः सत्त्वात्सत्वं शुद्धेन नश्यति । तस्मात्सत्त्वमवष्टभ्य स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२७९॥
रजोगुण और सत्त्वगुणसे तम, सत्त्वगुणसे रज और शुद्ध सक्से सत्त्वगुणका नाश होता है इसलिये शुद्ध सत्त्वका आश्रय लेकर अपने अध्यासका त्याग करो।
प्रारब्धं पुष्यति वपुरिति निश्चित्य निश्चलः। धैर्यमालम्ब्य यत्नेन स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२८॥
प्रारब्ध ही शरीरका पोषण करता है, ऐसा निश्चय कर निश्चलभावसे धैर्य धारण करके यत्नपूर्वक अपने अध्यासको छोड़ो। . नाहं जीवः परं ब्रह्मेत्यतव्यावृत्तिपूर्वकम् ।
वासनावेगतः प्राप्तखाध्यासापनयं कुरु ॥२८१॥
मैं जीव नहीं हूँ, परब्रह्म हूँ, इस प्रकार अपनेमें जीवभावका निषेध करते हुए, वासनात्रयके वेगसे प्राप्त हुए जीवत्वके अध्यासका त्याग करो।
श्रुत्या युक्त्या खानुभूत्या ज्ञात्वा सार्वात्म्यमात्मनः। कचिदाभासतः प्राप्तस्वाध्यासापनयं कुरु ॥२८२।।
श्रुति, युक्ति और अपने अनुभवसे आत्माकी सर्वात्मताको जानकर कभी भ्रमसे प्राप्त हुए अपने अध्यासका त्याग करो।
अनादानविसर्गाभ्यामीषन्नास्ति क्रिया मुनेः । तदेकनिष्ठया नित्यं स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२८३॥
बोधवान् मुनिको कोई भी वस्तु ग्राह्य अथवा त्याज्य न होनेसे कुछ भी कर्तव्य नहीं है, इसलिये निरन्तर आत्मनिष्ठाद्वारा मात्मामें हुए अध्यासको त्यागो।
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