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अभ्यास-निरास करणमें स्थित अनन्त दुर्वासनारूपी धूलिसे ढकी हुई परमात्मवासना बुद्धिके अत्यन्त सङ्घर्षसे शुद्ध होकर चन्दनकी गन्धके समान ही स्पष्ट प्रतीत होने लगती है।
अनात्मवासनाजालैस्तिरोभूतात्मवासना । नित्यात्मनिष्ठया तेषां नाशे भाति स्वयं स्फुटा ॥२७६॥
अनात्मवासनाओंके समूहसे आत्मवासना छिप गयी है; इसलिये निरन्तर आत्मनिष्ठामें स्थित रहनेसे उनका नाश हो जानेपर वह स्पष्ट भासने लगती है। यथा यथा प्रत्यगवस्थितं मन
स्तथा तथा मुश्चति बाह्यवासनाः। निःशेषमोक्षे सति वासनाना- . com
मात्मानुभूतिः प्रतिबन्धशून्या ॥२७७॥ मन जैसे-जैसे अन्तर्मुख होता जाता है, वैसे-वैसे ही वह बाह्य वासनाओंको छोड़ता जाता है । जिस समय वासनाओंसे पूर्णतया छुटकारा हो जाता है, उस समय आत्माका प्रतिबन्धशून्य अनुभव होने लगता है।
अध्यास-निरास स्वात्मन्येव सदास्थित्या मनो नश्यति योगिनः । वासनाना क्षयश्चातः स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२७८॥
[चित्तवृत्तियोंको रोककर ] निरन्तर आत्मस्वरूपमें ही स्थिर रहनेसे योगीका मन नष्ट हो जाता है और उसकी वासनाओंका भी क्षय हो जाता है इसलिये अपने अध्यासको दूर करो।
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