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हेमवत्स्वयमविक्रियं सदा
ब्रह्म तत्वमसि भावयात्मनि ॥२६॥ जो सर्वदा सत् और सुवर्णके समान वयं निर्विकार है तथापि भ्रमवश [ उसके विकार कटक-कुण्डलादिके समान ] नाना नाम, रूप, गुण और विकारोंके रूपमें भासता है वह ब्रह्म ही तुम हो-ऐसा अपने चित्तमें चिन्तन करो। यच्चकास्त्यनपरं परात्परं
प्रत्यगेकरसमात्मलक्षणम् । सत्यचित्सुखमनन्तमव्ययं
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥२६॥ जो अनपररूपसे [ अर्थात् जिससे परे और कोई न हो इस प्रकार ] प्रकाशमान है, पर ( अव्यक्त प्रकृति ) से भी परे है, प्रत्यक्, एकरस और सबका अन्तरात्मा है तथा सच्चिदानन्दवरूप, अनन्त और अव्यय है वह ब्रह्म ही तुम हो-ऐसी अपने अन्तःकरणमें भावना करो। उक्तमर्थमिममात्मनि स्वयं
___ भावय प्रथितयुक्तिमिर्धिया । संशयादिरहितं कराम्बुवत्
तेन तत्वनिगमो भविष्यति ॥२६५।। इस पूर्वोक्त विषयको अपनी बुद्धिसे [ वेदान्तकी ] प्रसिद्ध युक्तियोंद्वारा अपने चित्तमें स्वयं विचारो । इससे हस्तगत जलके समान संशय-विपर्ययसे रहित तत्त्वबोध हो जायगा ।
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