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महावाक्य- विचार
ब्रह्ममें कल्पित द्वैतको 'अथात आदेशो नेति नेति' (बृह० २ । ३ । ६ ) इत्यादि श्रुति स्वयं निषेध करती है; इसलिये श्रुति प्रमाणानुकूल युक्तिसे उपर्युक्त उपाधियोंका बाध करना ही चाहिये । नेदं नेदं कल्पितत्वान्न सत्यं रज्जौ
दृष्टव्यालवत्स्वप्नवच्च ।
इत्थं दृश्यं साधुयुक्त्या व्यपोह
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ज्ञेयः पश्चादेकभावस्तयोर्यः ॥२४८॥
यह दृश्य कल्पित होनेके कारण रज्जुमें प्रतीत होनेवाले सर्प और स्वप्न में भासनेवाले विविध पदार्थोंकी भाँति सत्य नहीं है; ऐसी ही प्रबल युक्तियोंसे दृश्यका निषेध करनेपर पीछे उन ( जीव और र ईश्वर ) का ज का जो एक भाव बच रहता है वही जाननेयोग्य है । ततस्तु तौ लक्षणया सुलक्ष्यौ
तयोरखण्डैकरसत्वसिद्धये ।
नालं जहत्या न तथाजहत्या
किन्तुभयार्थात्मिकयैव भाव्यम् ॥ २४९ ॥
जीवात्मा और परमात्माकी अखण्डैकरसताकी सिद्धिके लिये महावाक्यमें लक्षणा करनेसे ही उनका ज्ञान होता है । उनका ठीकठीक ज्ञान न तो जहती - लक्षणासे होता है और न अजहतीसे ही; इसलिये इस जगह जहत्यजहती लक्षणाका प्रयोग करना चाहिये । देवदत्तोऽयमितीह चैकता विरुद्धधर्माशमपास्य यथा तथा तत्त्वमसीति वाक्ये विरुद्धधर्मानुभयत्र
स
वि० चू० ६
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कथ्यते ।
हित्वा ॥ २५० ॥