________________
ब्रह्म-भावना
'अस्थूलमनण्वहूस्वमदीर्घम् ' (बृह० ३ । ८ । ७ ) इत्यादि श्रुतिसे असत् स्थूलता आदिका निरास करनेसे आकाशके समान व्यापक अतर्क्य वस्तु स्वयं ही सिद्ध हो जाती है । इसलिये आत्मरूपसे गृहीत ये देह आदि मिथ्या ही प्रतीत होते हैं, इनमें आत्मबुद्धिको छोड़; और "मैं ब्रह्म हूँ' इस शुद्ध बुद्धिसे अखण्ड बोधस्वरूप अपने आत्माको जान ।
मृत्कार्य सकलं घटादि सततं मृन्मात्रमेवामितस्तद्वत्सज्जनितं सदात्मकमिदं सन्मात्रमेवाखिलम् । यस्मान्नास्ति सतः परं किमपि तत्सत्यं स आत्मा स्वयं तस्मात्तत्त्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम् | २५३ | जिस प्रकार मृत्तिका कार्य घट आदि हर तरहसे मृत्तिका ही हैं उसी प्रकार सत्से उत्पन्न हुआ यह सत्वरूप सम्पूर्ण जगत् सन्मात्र ही है । क्योंकि सत्से परे और कुछ भी नहीं है तथा वही सत्य और स्वयम् आत्मा भी है, इसलिये जो शान्त, निर्मल और अद्वितीय परब्रह्म है वह तुम्हीं हो।
निद्राकल्पितदेशकालविषयज्ञात्रादि सर्वं यथा मिथ्या तद्वदिहापि जाग्रति जगत्स्वाज्ञानकार्यत्वतः । यस्मादेवमिदं शरीरकरण प्राणाहमाद्यप्यसत् तस्मात्तत्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम्# २५४ * लक्ष्मीनारायणप्रेस मुरादाबादकी प्रतिमें इसके पश्चात् यह श्लोक और है
यत्र भ्रान्त्या कल्पितं तद्विवेके तत्तन्मात्रं नैव तस्माद्विभिन्नम् । स्वप्ने नष्टे स्वप्नविश्वं विचित्रं स्वस्माद्भिन्नं किन्तु दृष्टं प्रबोधे | जिसमें कोई वस्तु भ्रमसे कल्पित होती है विचार होनेपर वह तद्रूप ही प्रतीत होती है, उससे पृथक् नहीं । स्वप्नके नष्ट हो जानेपर खानदेवस्थामै क्या विचित्र स्वप्न-प्रपञ्च अपनेसे पृथक दिखायी देता है ?
http://www.ApniHindi.com