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मनोमय कोश
तथा रज-तम आदि दोषयुक्त अविवेकी पुरुषके लिये यह (अध्यास) ही जन्मादि दुःखका मूल कारण है ।
अतः प्राहुर्मनोऽविद्यां पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः । येनैव भ्राम्यते विश्वं वायुनेवाभ्रमण्डलम् ॥१८२॥
अतः तत्त्वदर्शी विद्वान् मनको ही अविद्या कहते हैं; जिसके द्वारा वायु से मेघ-मण्डलकी भाँति यह सम्पूर्ण विश्व भ्रमाया जा रहा है।
तन्मनः शोधनं कार्य प्रयत्नेन मुमुक्षुणा । विशुद्धे सति चैतस्मिन्मुक्ति करफलायते ।। १८३ ॥ उस मनका मुमुक्षुको प्रयत्नपूर्वक शोधन करना चाहिये, उसके शुद्ध हो जाने पर मुक्ति करामलकवत् हो जाती है । मोक्षैकसक्त्या विषयेषु रागं
निर्मूल्य संन्यस्य च सर्वकर्म ।
सच्छ्रद्धया यः श्रवणादिनिष्ठो
रजःस्वभावं स धुनोति बुद्धेः ॥ १८४ ॥
मोक्षकी आसक्ति से जो विषयोंमें रागका निर्मूलन करके तथा सर्वकर्मो को त्यागकर, शुद्ध श्रद्धासे युक्त हुआ श्रवणादिमें तत्पर रहता है, वह बुद्धिके रजोमय ( चञ्चल ) स्वभावको नष्ट कर देता है । मनोमयो नापि भवेत्परात्मा ह्याद्यन्तवत्त्वात्परिणामिभावात् ।
दुःखात्मकत्वाद्विषयत्वहेतो
द्रष्टा हि दृश्यात्मतया न दृष्टः ।। १८५ ।।
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