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ब्रह्म और जगत्की एकता
यदि यह जगत् सत्य हो तो आत्माकी अनन्ततामें दोष आता है और श्रुति अप्रामाणिक हो जाती है तथा ईश्वर ( भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ) भी मिथ्यावादी ठहरते हैं । ये तीनों ही बातें सत्पुरुषोंके लिये शुभ और हितकर नहीं हैं ।
ईश्वरो वस्तुतत्वज्ञो न चाहं तेष्ववस्थितः । न च मत्स्यानि भूतानीत्येवमेव व्यचीक्लपत् ॥ २३५॥ परमार्थ-तत्त्वके जाननेवाले भगवान् कृष्णचन्द्रने यह निश्चित किया है कि 'न तो मैं ही भूतोंमें स्थित हूँ और न वे ही मुझमें स्थित हैं ।' यदि सत्यं भवेद्विश्वं सुषुप्तावुपलभ्यताम् ।
यनोपलभ्यते किञ्चिदतोऽसत्स्वप्नवन्मृषा ॥ २३६ ॥ www... Apti यदि विश्व सत्य होता तो सुषुप्ति में भी उसकी प्रतीति होनी चाहिये थी; किन्तु उस समय इसकी कुछ भी प्रतीति नहीं होती; इसलिये यह खनके समान असत् और मिथ्या है । अतः पृथङ्नास्ति जगत्परात्मनः
पृथक्प्रतीतिस्तु मृषा गुणादिवत् ।
आरोपितस्यास्ति किमर्थवत्ता
धिष्ठानमाभाति तथा भ्रमेण ॥ २३७॥
इसलिये परमात्मासे पृथक् जगत् है ही नहीं, उसकी पृथक् प्रतीति तो गुणीसे गुण आदिकी पृथक् प्रतीतिके समान मिथ्या ही है; आरोपित वस्तुकी वास्तविकता ही क्या ? वह तो अधिष्ठान ही भ्रमसे उस प्रकार भास रहा है
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