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ब्रह्म और जगत्की एकता ब्रह्म और जगतकी एकता सदिदं परमाद्वैत खसादन्यस्य वस्तुनोऽभावात् । न ह्यन्यदस्ति किश्चित्सम्यक्परमार्थतत्वबोधे हि ॥२२८॥
यह परमाद्वैत ही एक सत्य पदार्थ है, क्योंकि इस स्वात्मासे अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं । इस परमार्थ-तत्त्वका पूर्ण बोध हो जानेपर और कुछ भी नहीं रहता।
यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् । ... तत्सर्व ब्रह्मैव प्रत्यस्ताशेषभावनादोषम् ॥२२९॥
यह सम्पूर्ण विश्व, जो अज्ञानसे नाना प्रकारका प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओंके दोषसे रहित [ अर्थात् निर्विकल्प ] ब्रह्म ही है। मृत्कार्यभूतोऽपि मृदो न भिन्नः
कुम्भोऽस्ति सर्वत्र तु मृत्स्वरूपात् । न कुम्भरूपं पृथगस्ति कुम्भः
कुतो मृषा कल्पितनाममात्रः ॥२३०॥ मिट्टीका कार्य होनेपर भी घड़ा उससे पृथक् नहीं होता, क्योंकि सब ओरसे मृत्तिकारूप होनेके कारण घड़ेका रूप मृत्तिकासे पृथक् नहीं है, अतः मिट्टीमें मिथ्या ही कल्पित नाममात्र घड़ेकी सत्ता ही कहाँ है !
केनापि मृद्भिन्नतया स्वरूपं
. घटस्य संदर्शयितुं न शक्यते । अतो घटः कल्पित एव मोहा
न्मृदेव सत्यं परमार्थभूतम् ॥२३॥
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