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घर्ट
तटस्थ
जलं
आत्मस्वरूपनिरूपण
तद्गतमर्कविम्बं विहाय सर्व विनिरीक्ष्यतेऽर्कः । एतत्त्रितयावभासकः
स्वयंप्रकाशो विदुषा यथा तथा ॥ २२९ ॥ चित्प्रतिविम्बमेतं विसृज्य बुद्धौ निहितं गुहायाम् ।
देहं धियं
द्रष्टारमात्मानमखण्डबोधं
सर्वप्रकाशं सदसद्विलक्षणम् ॥२२२॥
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मwww.मन्तर्बहिःशून्यमनन्यमात्मनः । सम्यनिजरूपमेत
विज्ञाय
त्पुमान्विपाप्मा विरजो विमृत्युः ॥२२३॥
विद्वान् पुरुष घड़ा, जल और उसमें स्थित सूर्यका प्रतिविम्ब -- इन सबको छोड़कर जैसे इन तीनोंके प्रकाशक इनसे पृथक् और स्वयंप्रकाशरूप सूर्यको देखता है, उसी प्रकार देह, बुद्धि और चिदाभास -- इन तीनोंको छोड़कर बुद्धि-गुहामें स्थित साक्षीरूप इस आत्माको अखण्ड बोधस्वरूप, सबकेप्रकाशक और सत्-असत् दोनोंसे भिन्न, नित्य, विभु, सर्वगत, सूक्ष्म, भीतर-बाहर के भेदसे रहित और अपने-आपसे सर्वथा अभिन्न इस (आमा) को भलीभाँति अपना निजरूप जानकर पुरुष पापरहित, निर्मल और अमर हो जाता है ।
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