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________________ ७३ घर्ट तटस्थ जलं आत्मस्वरूपनिरूपण तद्गतमर्कविम्बं विहाय सर्व विनिरीक्ष्यतेऽर्कः । एतत्त्रितयावभासकः स्वयंप्रकाशो विदुषा यथा तथा ॥ २२९ ॥ चित्प्रतिविम्बमेतं विसृज्य बुद्धौ निहितं गुहायाम् । देहं धियं द्रष्टारमात्मानमखण्डबोधं सर्वप्रकाशं सदसद्विलक्षणम् ॥२२२॥ नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मwww.मन्तर्बहिःशून्यमनन्यमात्मनः । सम्यनिजरूपमेत विज्ञाय त्पुमान्विपाप्मा विरजो विमृत्युः ॥२२३॥ विद्वान् पुरुष घड़ा, जल और उसमें स्थित सूर्यका प्रतिविम्ब -- इन सबको छोड़कर जैसे इन तीनोंके प्रकाशक इनसे पृथक् और स्वयंप्रकाशरूप सूर्यको देखता है, उसी प्रकार देह, बुद्धि और चिदाभास -- इन तीनोंको छोड़कर बुद्धि-गुहामें स्थित साक्षीरूप इस आत्माको अखण्ड बोधस्वरूप, सबकेप्रकाशक और सत्-असत् दोनोंसे भिन्न, नित्य, विभु, सर्वगत, सूक्ष्म, भीतर-बाहर के भेदसे रहित और अपने-आपसे सर्वथा अभिन्न इस (आमा) को भलीभाँति अपना निजरूप जानकर पुरुष पापरहित, निर्मल और अमर हो जाता है । http://www.ApniHindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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