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________________ विवेक-चूडामणि असौ स्वसाक्षिको मावो यतः स्वेनानुभूयते । अतः परं स्वयं साक्षात्प्रत्यगात्मा न चेतरः ॥२१८॥ अपना तो यह आत्मा खयं ही साक्षी है, क्योंकि यह खये अपने-आपसे ही अनुभव किया जाता है । इसलिये इससे परे कोई और अपना साक्षात् अन्तरात्मा नहीं है। जाग्रत्स्वमसुषुप्तिषु स्फुटतरं योऽसौ समुज्जम्भते प्रत्यग्रूपतया सदाहमहमित्यन्तःस्फुरकथा । नानाकारविकारमागिन इमान्पश्यन्नहंधीमुखान् नित्यानन्दचिदात्मनास्फुरति तं विद्धि स्वमेतंहदि।।२१९॥ • जाग्रत्, खप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओंमें जो अन्त:करणके भीतर सदा अहं-अहं ( मैं-मैं ) रूपसे अनेक प्रकार स्फुरित होता हुआ प्रत्यग्रूपसे स्पष्टतया प्रकाशित होता है और अहंकारसे लेकर प्रकृतिके इन नाना विकारोंको साक्षीरूपसे देखता हुआ नित्य चिदानन्दरूपसे स्फुरित होता है, उसीको तू अपने अन्तःकरणमें विराजमान अपना आप समझ । घटोदके विम्बितमर्कविम्ब मालोक्य मूढो रविमेव मन्यते । तथा चिदाभासमुपाघिसंस्थं भ्रान्त्याहमित्येव जडोमिमन्यते ॥२२०॥ जिस प्रकार मूढ पुरुष घड़ेके जलमें प्रतिविम्वित सूर्यविम्बको देखकर उसे सूर्य ही समझता है, उसी प्रकार उपानि खित चिदाभासको अज्ञानी पुरुष भ्रमसे अपना-बाप ही मान बैठता है। http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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