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विवेक-चूडामणि विशोक आनन्दपनो विपश्चि
स्वयं कुतश्चिन्न बिभेति कश्चित् । नान्योऽस्ति पन्था भववन्धमुक्ते
विना खतत्त्वावगमं मुमुक्षोः॥२२४॥ वह अति बुद्धिमान् पुरुष शोकरहित और आनन्दधनरूप हो जानेसे कभी किसीसे भयभीत नहीं होता । मुमुक्षु पुरुषके लिये आत्म-तत्त्वके ज्ञानको छोड़कर संसारबन्धनसे छूटनेका और कोई मार्ग नहीं है।
ब्रह्माभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम् ।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रह्म सम्पद्यते बुधैः ॥२२५॥ - ब्रह्म और आत्माके अभेदका ज्ञान ही भवबन्धनसे मुक्त होनेका कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान् पुरुष अद्वितीय आनन्दस्वरूप ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मभूतस्तु संमृत्यै विद्वानावर्तते पुनः । विज्ञातव्यमतः सम्यग्ब्रह्माभिन्नत्वमात्मनः ॥२२६॥
ब्रह्मभूत हो जानेपर विद्वान् फिर जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें नहीं पड़ता ? इसलिये आत्माका ब्रह्मसे अभिन्नत्व भली प्रकार जान लेना चाहिये !
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म विशुद्धं परं स्वतःसिद्धम् ।
नित्यानन्दैकरसं प्रत्यगमिनं निरन्तरं जयति ॥२२७॥ . ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है; वह शुद्ध, पर, स्वतःसिद्ध, नित्य, एकमात्र आनन्दस्वरूप, प्रत्यक् ( अन्तरतम ) और अभिन्न है तथा निरन्तर उन्नतिशाली है।
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