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आत्माकी उपाधिले असता
अस्यैव विज्ञानमयस्य जाग्रत्
स्वमाद्यवस्था
देहादिनिष्ठाश्रमधर्मकर्म
विज्ञानकोशोऽयमतिप्रकाशः
सुखदुःखभोगः || १८९ ॥
गुणाभिमानं सततं ममेति ।
प्रकृष्टसान्निध्यवशात्परात्मनः T
अतो
भवत्येष उपाधिरस्य
यदात्मधीः संसरति भ्रमेण ॥ १९० ॥
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यह अहंस्वभाववाला विज्ञानमय कोश ही अनादिकालीन जीक और संसार के समस्त व्यवहारोंका निर्वाह करनेवाला है । यह अपनी पूर्व-वासनासे पुण्य-पापमय अनेकों कर्म करता और उनके फल भोगता है तथा विचित्र योनियोंमें भ्रमण करता हुआ कभी नीचे आता और कभी ऊपर जाता है । जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाएँ, सुख-दुःख आदि भोग, देहादिमें आत्माभिमान, आश्रमादिके धर्म-कर्म तथा गुणोंका अभिमान और ममता आदि सर्वदा इस विज्ञानमय कोशमें ही रहते. हैं । यह आत्माकी अति निकटताके कारण अत्यन्त प्रकाशमय है; अतः यह इसकी उपाधि है, जिसमें भ्रमसे आत्मबुद्धि करके यह जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़ता है ।
आत्माकी उपाधि से असङ्गता
योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृदि स्फुरत्स्वयंज्योतिः । : कूटस्थः सन्नात्मा कर्ता भोक्ता भवत्युपाधिस्थः ॥१९१॥
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