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________________ ६३ आत्माकी उपाधिले असता अस्यैव विज्ञानमयस्य जाग्रत् स्वमाद्यवस्था देहादिनिष्ठाश्रमधर्मकर्म विज्ञानकोशोऽयमतिप्रकाशः सुखदुःखभोगः || १८९ ॥ गुणाभिमानं सततं ममेति । प्रकृष्टसान्निध्यवशात्परात्मनः T अतो भवत्येष उपाधिरस्य यदात्मधीः संसरति भ्रमेण ॥ १९० ॥ 1 यह अहंस्वभाववाला विज्ञानमय कोश ही अनादिकालीन जीक और संसार के समस्त व्यवहारोंका निर्वाह करनेवाला है । यह अपनी पूर्व-वासनासे पुण्य-पापमय अनेकों कर्म करता और उनके फल भोगता है तथा विचित्र योनियोंमें भ्रमण करता हुआ कभी नीचे आता और कभी ऊपर जाता है । जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाएँ, सुख-दुःख आदि भोग, देहादिमें आत्माभिमान, आश्रमादिके धर्म-कर्म तथा गुणोंका अभिमान और ममता आदि सर्वदा इस विज्ञानमय कोशमें ही रहते. हैं । यह आत्माकी अति निकटताके कारण अत्यन्त प्रकाशमय है; अतः यह इसकी उपाधि है, जिसमें भ्रमसे आत्मबुद्धि करके यह जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़ता है । आत्माकी उपाधि से असङ्गता योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृदि स्फुरत्स्वयंज्योतिः । : कूटस्थः सन्नात्मा कर्ता भोक्ता भवत्युपाधिस्थः ॥१९१॥ http://www.ApniHindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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