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विवेक चूडामणि
यह जो खयंप्रकाश विज्ञानस्वरूप हृदयके भीतर प्राणादिमें स्फुरित हो रहा है, वह कूटस्थ (निर्विकार ) आत्मा होनेपर भी उपाधिवश कर्ता-भोक्ता हो जाता है। स्वयं परिच्छेदमुपेत्य बुद्धे
स्तादात्म्यदोषेण परं मृषात्मनः । सर्वात्मकः सन्नपि वीक्षते स्वयं
स्वतः पृथक्त्वेन मृदो घटानिव ॥१९२॥ वह परात्मा मिथ्या-बुद्धिसे परिच्छिन्न होकर उससे एकीभूत हो जानेके दोषसे स्वयं सर्वात्मक होते हुए भी मिट्टीसे घड़ेके समान अपनेको अपनेहीसे पृथक् देखता है। उपाधिसम्बन्धवशात्परात्माndi.com
घुपाधिधर्माननु माति तद्गुणः । अयोविकारानविकारिवहिव
त्सदैकरूपोऽपि परः खभावात् ॥१९३॥ वह परात्मा स्वरूपसे तो सदा एकरूप ही है तथापि उपाधिके सम्बन्धसे उसके गुणोंसे युक्त-सा होकर उसीके धोके साथ प्रकाशित होने लगता है, जिस प्रकार लोहेके विकारोंमें व्याप्त हुआ अविकारी अग्नि उन्हींके समान प्रकाशित होता है ।
मुक्ति कैसे होगी ?
शिष्य उवाच भ्रमेणाप्यन्यथा वास्तु जीवभावः परात्मनः । तदुपारनादित्वाचानादेर्नाश इयते ॥१९॥
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