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विवेक-चूडामणि
मन नामका भयकर व्याघ्र विषयरूप वनमें घूमता-फिरता है । जो साधु मुमुक्षु हैं, वे वहाँ न जायें । मनः प्रसते विषयानशेषा
। स्थूलात्मना सूक्ष्मतया च मोक्तुः। शरीरवर्णाश्रमजातिभेदान्
गुणक्रियाहेतुफलानि नित्यम् ॥१७९॥ मन ही सम्पूर्ण स्थूल-सूक्ष्म विषयोंको, शरीर, वर्ण, आश्रम, जाति आदि भेदोंको तथा गुण, क्रिया, हेतु और फलादिको भोक्ताके लिये नित्य उत्पन्न करता रहता है । असङ्गचिद्रूपममुं विमोह्य
www. देहेन्द्रियप्राणगुणैर्निवध्य om। अहंममेति भ्रमयत्यजत्रं
मनः स्वकृत्येषु फलोपभुक्तिषु ॥१८०॥ इस असङ्ग चिद्रूप आत्माको मोहित करके तथा इसे देह, इन्द्रिय, प्राणादि गुणोंसे बाँधकर, यह मन ही इसको मैं-मेरा' भावसे अपने कर्म और उनके फलोपभोगमें निरन्तर भटकाता है । अभ्यासदोषात्पुरुषस्य संसृति
रध्यासबन्धस्त्वमुनैष कल्पितः। रजस्तमोदोषवतोऽविवेकिनो
जन्मादिदुःखस्य निदानमेतत् ५१८१॥ अध्यास-दोषसे ही पुरुषको जन्म-मरणरूप संसार होता है और यह अध्यासका बन्धन इसीका कल्पित किया हुआ है
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