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अन्नमय कोश देहेन्द्रियादावसति भ्रमोदितां
विद्वानहन्तां न जहाति यावत् । तावन्न तस्यास्ति विमुक्तिवार्ता
प्यस्त्वेष वेदान्तनयान्तदर्शी ॥१६४॥ जबतक विद्वान् असत् देह और इन्द्रिय आदिमें भ्रमसे उत्पन्न हुई अहंताको नहीं त्यागता, तबतक वह वेदान्त-सिद्धान्तोंका पारदर्शी क्यों न हो, उसके मोक्षकी कोई बात ही नहीं है ।
छायाशरीरे प्रतिविम्बगात्रे
__ यत्स्वप्नदेहे हृदि कल्पिताङ्गे यथात्मबुद्धिस्तव नास्ति काचि
ज्जीवच्छरीरे च तथैव मास्तु ॥१६५॥ छाया, प्रतिबिम्ब, स्वप्न और मनमें कल्पित किये हुए शरीरोंमें जिस प्रकार तेरी कभी आत्मबुद्धि नहीं होती, उसी प्रकार जीवित शरीरमें भी कभी न होनी चाहिये। देहात्मधीरेव नृणामसिद्धयां
जन्मादिदुःखप्रभवस्य बीजम् । यतस्ततस्त्वं जहि तां प्रयत्ना
__यक्के तु चित्ते न पुनर्भवाशा ॥१६६॥ क्योंकि देहात्म-बुद्धि ही असबुद्धि मनुष्योंके जन्मादि दुःखोंकी उत्पत्तिकी कारण है, अतः उसे तू प्रयत्नपूर्वक छोड़ दे, उस बुद्धिके छूट जानेपर फिर पुनर्जन्मकी कोई आशंका न रहेगी।
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