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विवेक-चूडामणि
आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा । तेनैवानन्दी भवति खं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥
बन्धनकी निवृत्तिके लिये विद्वान्को आत्मा और अनात्माका विवेक करना चाहिये । उसीसे अपने आपको सच्चिदानन्दरूप जानकर वह आनन्दित हो जाता है ।
मुखादिषीकामिव
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eseaर्गा
त्प्रत्यञ्श्चमात्मानमसङ्गमक्रियम् ।
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्व
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तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ।। १५५ ।।
जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्माको मूँजमेंसे सीमें लय करके
सकके समान दृश्यवर्गसे पृथक्
आत्मभावमें ही स्थित रहता है, वही मुक्त 1
अन्नमय कोश देहोऽयमन्नभवनोऽन्नमयस्तु कोश
श्रनेन जीवति विनश्यति तद्विहीनः ।
त्वक्चर्ममांसरुधिरास्थिपुरीषराशि
नयं स्वयं भवितुमर्हति नित्यशुद्धः || १५६ ॥
अन्नसे उत्पन्न हुआ यह देह ही अन्नमय कोश है, जो अन्नसे ही जीता है और उसके बिना नष्ट हो जाता है । यह त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, अस्थि और मल आदिका समूह स्वयं नित्यशुद्ध आत्मा नहीं हो सकता ।
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