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विवेकचूडामणि
जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भोः संसारदुःखक्षतिमातनुष्व
॥४२॥
"मैं इस संसार - समुद्रको कैसे तरूँगा ! मेरी क्या गति होगी ? उसका क्या उपाय है ?' -- यह मैं कुछ नहीं जानता । प्रभो ! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरे संसार - दुःखके क्षयका आयोजन कीजिये ।
उपदेश-विधि
तथा वदन्तं शरणागतं स्वं संसारदावानलतापतप्तम् कारुण्यरसार्द्रदृष्टया दद्यादभीतिं सहसा दमात सहसा महात्मा ॥४३॥
निरीक्ष्य
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इस प्रकार कहते हुए, अपनी शरणमें आये संसारानल - संतप्त शिष्यको महात्मा गुरु करुणामयी दृष्टि से देखकर सहसा अभय प्रदान करे ।
विद्वान्स तस्मा उपसत्तिमीयुषे
मुमुक्षवे साधु यथोक्तकारिणे ।
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय
मा
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तत्वोपदेशं कृपयैव कुर्यात् ॥ ४४ ॥ शरणागतिकी इच्छावाले उस मुमुक्षु, आज्ञाकारी, शान्तचित्त, शमदमादिसंयुक्त साधु शिष्यको गुरु कृपया [इस प्रकार ] तत्वोपदेश करे
श्रीगुरुरुवाच भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः
संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः 1
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