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आत्म-निरूपण ___ यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अन्तरात्मा पुराणपुरुष है जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणासे वागादि इन्द्रियाँ और प्राण चलते हैं। अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया
मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः। आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते
स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥१३४॥ इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहामें स्थित अव्यक्ताकाशके भीतर एक परमप्रकाशमय आकाश सूर्यके समान अपने तेजसे इस सम्पूर्ण जगत्को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रतासे प्रकाशमान हो रहा है। Hndi.com ज्ञाता मनोऽहकृतिविक्रियाणां
देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाणाम् । अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो
न चेष्टते नो विकरोति किश्चन ॥१३५। वह मन और अहंकाररूप विकारोंका तथा देह, इन्द्रिय और प्राणोंकी क्रियाओंका ज्ञाता है । तथा तपाये हुए लोहपिण्डके समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकारको ही प्राप्त होता है। न जायते नो म्रियते न वर्धते
नक्षीयते नो विकरोति नित्यः । विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्म इवाम्बरं स्वयम् ॥१३६॥
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