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आत्म-निरूपण
देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहङ्कार आदि सारे विकार, सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्तपर्यन्त निखिल विश्व - सभी अनात्मा हैं ।
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माया मायाकार्य सर्व महदादि देहपर्यन्तम् । असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥ माया और महत्तत्त्व से लेकर देहपर्यन्त मायाके सम्पूर्ण कार्योंको तू मरुमरीचिका समान असत् और अनात्मक जान ।
आत्म-निरूपण
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः । यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६॥ अब मैं तुझे परमात्माका स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकर बन्धनसे छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है ।
मनुष्य
अस्ति कश्चित स्वयं नित्यमहं प्रत्ययलम्बनः । अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७॥
अहं प्रत्ययका आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है ।
यो विजानाति सकलं जाग्रत्स्वमसुषुप्तिषु । बुद्धितद्वृत्तिसद्भावमभावमहमित्ययम्
॥१२८॥
जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियोंके होने और न होनेको 'अहंभाव ' से स्थित हुआ जाता है।
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