________________
विवेकचूडामणि
पश्यति कश्चन । यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥
यः पश्यति स्वयं सर्व यं न यश्चेतयति बुद्धयादि न तु जो स्वयं सबको देखता है; किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता । जो बुद्धि आदिको प्रकाशित करता है; किन्तु जिसे बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते ।
येन विश्वमिदं व्यासं यन्न व्याप्नोति किश्चन । आभारूपमिदं सर्व यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥
जिसने सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त किया हुआ है; किन्तु जिसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासनेपर यह आभासरूप सारा जगत् भासित हो रहा है । यस्य Www.
H
सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः । विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥१३१॥ जिसकी सन्निधिमात्रसे देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए-से अपने-अपने विषयोंमें बर्तते हैं ।
अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः । नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥
वेद्यन्ते
घटवद्येन
अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूपके द्वारा घटके समान जाने जाते हैं ।
एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो
सदैकरूपः
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः । प्रतिबोधमात्रो
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३॥
http://www.ApniHindi.com