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प्रश्न- विचार
पत्थर आदिको हटाने तथा [ प्राप्त हुए धनको ] स्वीकार करनेकी आवश्यकता होती है— कोरी बातोंसे वह बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार समस्त मायिक-प्रपञ्चसे शून्य निर्मल आत्मतत्त्व भी ब्रह्मवित् गुरुके उपदेश तथा उसके मनन और निदिध्यासनादिसे ही प्राप्त होता है, थोथी बातोंसे नहीं ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन
भवबन्धविमुक्तये । स्वैरेव यत्नः कर्तव्यो रोगादाविव पण्डितैः ॥ ६८ ॥ इसलिये रोग आदिके समान भव-बन्धकी निवृत्ति के लिये विद्वान्को अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिये ।
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यस्त्वयाद्य कृतः प्रश्नो वरीयान्छास्त्रविन्मतः । सूत्रप्रायो निगूढार्थो ज्ञातव्यश्च मुमुक्षुमिः ||६९ || तूने आज जो प्रश्न किया है, शास्त्रज्ञजन उसको बहुत श्रेष्ठ मानते हैं । वह प्रायः सूत्ररूप ( संक्षिप्त ) है, तो भी गम्भीर अर्थयुक्त और मुमुक्षुओंके जाननेयोग्य है ।
विद्वन्यन्मया समुदीर्यते । भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे ॥७०॥
विद्वन् ! जो मैं कहता हूँ, सावधान होकर सुन; उसको
शृणुष्वावहितो तदेतच्छ्रवणात्सद्यो
सुनने से तू शीघ्र ही भवबन्धनसे छूट जायगा । मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु
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