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विवेक-चूडामणि
देहासक्तिकी निन्दा
अनुक्षणं यत्परिहृत्य कृत्यमनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम् ।
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देहः परार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सञ्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५ ॥ जो अनादि अविद्याकृत बन्धनको छुड़ानारूप अपना कर्त्तव्य त्यागकर प्रतिक्षण इस परार्थ ( अन्यके भोग्यरूप ) देहके पोषणमें ही लगा रहता है वह [ अपनी इस प्रवृत्तिसे ] स्वयं अपना घात करता है ।
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति | ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तु स इच्छति ॥ ८६ ॥ जो शरीरपोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्वको देखना चाहता है वह मानो काष्ठउ-बुद्धिसे ग्राहको पकड़कर नदी पार करना चाहता है ।
मोह
एव
महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु । मोहो विनिर्जितो येन स मुक्तिपदमर्हति ॥८७॥
शरीरादिमें मोह रखना ही मुमुक्षुकी बड़ी भारी मौत है; जिसने मोहको जीता है वही मुक्तिपदका अधिकारी है ।
मोहं जहि महामृत्युं
देहदारसुतादिषु ।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥८८॥ देह, स्त्री और पुत्रादिमें मोहरूप महामृत्युको छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परमपदको प्राप्त होते हैं ।
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