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प्राणके धर्म यसादसङ्गस्तत एव कर्ममि
ने लिप्यते किश्चिदुपाधिना कृतैः ॥१०१॥ बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस (बुद्धि ) के किये हुए कोंसे तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है । अतः उपाधिकृत कर्मोंसे तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता।
सर्वव्यापृतिकरणं लिङ्गमिदं स्थाच्चिदात्मनः पुंसः। वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्माभवत्यसङ्गोऽयम्।।१०२॥
यह लिङ्गदेह चिदात्मा पुरुषके सम्पूर्ण व्यापारोंका करण है, जिस प्रकार बढ़ईका बसूला होता है । इसीलिये यह आत्मा असङ्ग है। अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः hal.com
सौगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः । बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव
श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥१०३॥ नेत्रोंके सदोष अथवा निर्दोष होनेसे प्राप्त हुए अन्धापन, धुंधलापन अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रोंके ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहिरापन, Dगापन आदि भी श्रोत्रादिके ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्माके नहीं।
प्राणके धर्म उच्छ्वासनिःश्वासविजृम्मणक्षुत्
प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः।
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