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विवेक-चूडामणि
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अपरोक्षानुभवकी आवश्यकता
न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दतः । ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते ॥ ६४ ॥
विनापरोक्षानुभव
औषधको बिना पिये केवल औषध-शब्द के उच्चारणमात्र से रोग नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभवके बिना केवल 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता ।
अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः । बाह्यशब्दैः कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम् ॥ ६५ ॥ बिना दृश्य-प्रपञ्चका विलय किये और आत्मतत्त्वको जाने केवल बाह्य शब्दोंसे, जिनका फल केवल उच्चारणमात्र ही है, मनुष्योंकी मुक्ति कैसे हो सकती है ?ndi.com शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम् ।
अकृत्वा
राजाहमिति शब्दाभो राजा भवितुमर्हति ॥ ६६ ॥ बिना शत्रुओंका वध किये और बिना सम्पूर्ण पृथिवीमण्डलका ऐश्वर्य प्राप्त किये, "मैं राजा हूँ' — ऐसा कहनेसे ही कोई राजा नहीं हो जाता ।
आप्तोक्तिं खननं तथोपरिशिला द्युत्कर्षणं स्वीकृतिं निक्षेपः समपेक्षते न हि बहिः शब्दस्तु निर्गच्छति । तद्वद् ब्रह्मविदोपदेशमनन ध्यानादिभिर्लभ्यते मायाकार्यतिरोहितं स्वममलं तत्त्वं न दुर्युक्तिमिः || ६७॥ [ पृथिवी में गड़े हुए धनको प्राप्त करने के लिये जैसे ] प्रथम किसी विश्वसनीय पुरुषके कथनकी, और फिर पृथिवीको खोदने, कंकड़
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