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आत्मज्ञानका महत्व वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् । वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ॥६०॥
जिस प्रकार वीणाका रूप-लावण्य तथा तन्त्रीको बजानेका सुन्दर ढंग मनुष्योंके मनोरञ्जनका ही कारण होता है, उससे कुछ साम्राज्यकी प्राप्ति नहीं हो जाती; उसी प्रकार विद्वानोंकी वाणीकी कुशलता, शब्दोंकी धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यानकी कुशलता और विद्वत्ता भोगहीका कारण हो सकती हैं, मोक्षका नहीं।
अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला । विज्ञातेऽपि परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ॥६॥
परमतत्त्वको यदि न जाना तो शास्त्राध्ययन निष्फल ( व्यर्थ) ही है, और यदि परमतत्त्वको जान लिया तो भी शास्त्राध्ययन निष्फल ( अनावश्यक ) ही है।
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् । अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः ॥६२॥
शब्दजाल तो चित्तको भटकानेवाला एक महान् वन है, इसलिये किन्हीं तत्त्वज्ञानी महात्मासे प्रयत्नपूर्वक आत्मतत्त्वको जानना चाहिये।
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रह्मज्ञानौषधं विना । किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मन्त्रैः किमोषधैः ॥६३॥
अज्ञानरूपी सर्पसे डॅसे हुएको ब्रह्मज्ञानरूपी ओषधिके बिना वेदसे, शास्त्रसे, मन्त्रसे और औषधसे क्या लाभ ?
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