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विवेकचूडामणि उसीको आरोग्य-सिद्धि होती देखी जाती है, किसी औरके द्वारा किये हुए कोंसे कोई नीरोग नहीं होता । वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
स्वेनैव वेद्यं ननु पण्डितेन । चन्द्रवरूपं निजचक्षुषेव
ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम् ॥५६॥ [ वैसे ही ] विवेकी पुरुषको वस्तुका स्वरूप भी स्वयं अपने ज्ञान-नेत्रोंसे ही जानना चाहिये, [ किसी अन्यके द्वारा नहीं ] । चन्द्रमाका स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरोंके द्वारा क्या जाना जा सकता है ?
अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं विमोचितुम् । कः शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ॥५७।।
अविद्या, कामना और कर्मादिके जालके बन्धनोंको सौ करोड़ कल्पोंमें भी अपने सिवा और कौन खोल सकता है ?
आत्मज्ञानका महत्त्व न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया। ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्षः सिद्धथति नान्यथा ॥५८॥
मोक्ष न योगसे सिद्ध होता है, और न सांख्यसे, न कर्मसे और न विद्यासे । वह केवल ब्रह्मात्मैक्य-बोध ( ब्रह्म और आत्माकी एकताके ज्ञान ) से ही होता है, और किसी प्रकार नहीं।
वीणाया रूपमौन्दर्य तन्त्रीवादनसौष्ठवम् । प्रजारजनमात्रं तन साम्राज्याय कल्पते ॥५९॥
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