Book Title: Upasakadhyayan
Author(s): Somdevsuri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 21
________________ प्रस्तावना हाथ पकड़कर उसे जगाने लगी। रानीके देरसे आनेके कारण कुबड़ा क्रुद्ध होकर उसे मारने लगा। एक हाथसे उसने रानीके बालोंको खींचा और दूसरे हादसे घूसे लगाये। रानी उसकी अनुनय-विनय करते हुए कि जब मैं यशोधरके साथ थी तब भी मेरे हृदयमें तुम ही विराजमान थे; यदि मेरा कथन असत्य हो तो भगवती कात्यायनी मुझे खा जायें । राजा यशोधर यह सब कृत्य देख रहा था। एक बार तो उन दोनोंका वध करनेके लिए अपनी तलवार खींचना चाही, किन्तु अपने पुत्र बालक यशोमतिकुमारके मातृवियोगके दुःखकी सम्भावनासे तथा निन्दाके भयसे अपनेको शान्त करने का प्रयत्न किया। राजा यशोधर महल में लौटकर सोनेका बहाना करके लेट गया और रानी अमृतमती भी चुपचाप आकर उसके पास ऐसे सो गयो, मानो कुछ हुआ ही नहीं। किन्तु यशोधर फिर सो न सका, उसका अन्तःकरण घोर वेदनासे हाहाकार करने लगा और स्त्री मात्रके प्रति उसे तीव्र घणा हो गयी। उसने अपने पुत्र यशोमतिकुमारको राज्य देकर संसारको छोड़ देनेका विचार किया। प्रातःकाल होनेपर राजा यशोधर सभामण्डपमें पहुंचा। उसकी माता चन्द्रमती भी आयीं। स्तुतिपाठकने कुछ श्लोक पढ़े, जो राजाके मानसिक विचारोंके अनुकूल थे। राजाने प्रसन्न होकर उसे पारितोषिक प्रदान करनेका आदेश दिया। ___ यह देखकर माता चन्द्रमतीके मनमें सन्देह हुआ। वह सोचने लगी, आज मेरे पुत्रका मन संसारसे विरक्तिको और क्यों है ? कहीं महादेवीके महलमें तो कोई वैराग्यका कारण उपस्थित नहीं हा? मेरी अनिच्छाके होते हुए भी मेरे पुत्रने अपनी रानीको बड़ी स्वतन्त्रता दे रखो है। मेरी दासपुत्रीने एक दिन कहा भी था कि आपकी पुत्रवधूका उस कुबड़ेसे प्रेम ज्ञात होता है। यह सोचकर माताने यशोधरसे उसकी उदासोका कारण पूछा। यशोधरने पूर्वनिर्धारित योजनाके अनसार अपनी मातासे कहा कि मैंने एक स्वप्न देखा है कि मैं अपने पुत्रको राज्य देकर संसारसे विरक्त हो गया है। माताने स्वप्नोंपर ध्यान न देनेका आग्रह करते हुए अन्तमें कहा कि यदि तुझे दुःस्वप्नका भय है तो शान्तिके लिए कूलदेवताके सामने समस्त प्रकारके प्राणियोंको बलि देनी चाहिए। पशुओंके बलिदानकी बात सुनकर यशोधरके चित्तको बड़ा कष्ट हुआ। पशुबलिको लेकर माता और पुत्रमें शास्त्राधारपूर्वक वार्तालाप हुआ; किन्तु राजा माताके मतसे सहमत नहीं हो सका। माताने सोचा मेरे पत्रको जैनधर्मकी हवा लगी प्रतीत होती है । उस दिन पुरोहितके पुत्रने कहा भी था कि आज राजा एक वक्षमल-निवासी दिगम्बरसे मिला था। उसी दिनसे न तो यह मधु-मांसका सेवन करता है. न शिकार खेलता है, न पशुबलि करता है और श्रुति-स्मृतिके प्रमाण उपस्थित करनेपर उनके विरुद्ध उत्तर देता है। यह सोचते ही दिगम्बरोंके विरुद्ध माताका क्रोध भड़क उठा और वह उनकी निन्दा करने लगी। किन्तु पुत्र उनका समर्थन ही करता गया। जब माताने शिव, विष्णु और सूर्यको पूजा करनेपर जोर दिया तो पत्रने ब्राह्मणधर्मको कमजोरियां बतलाते हुए अनेक शास्त्रोंके आधारपर जैनधर्मको प्राचीनता और महत्ताका हो समर्थन किया। अन्त में माता चन्द्रमलीने निराश होकर अपने पुत्रको इस बातके लिए सहमत किया कि आटेका एक मुर्गा बनाकर देवीके सामने उसकी बलि दी जाये । रानी अमतमतीको राजसभाका सब समाचार मिला। वह तुरन्त समझ गयी कि स्वप्नकी बात असत्य है और राजाको मेरा रहस्य ज्ञात हो गया है। उसने तुरन्त आगेका अपना कार्यक्रम निश्चित करके एक मन्त्रीके द्वारा यशोधरको कहलाया कि राजाको दुःस्वप्नके फलसे बचानेके लिए मैं स्वयं देवीके सामने अपनी बलि देनेको तैयार है। तथा यदि राजाने संसारको त्यागने का ही निश्चय किया है तो सीता, द्रौपदी और अरुन्धती आदिकी तरह मुझे भी वनमें साथ चलनेकी आज्ञा दी जाये । उसने देवीको पूजाके पश्चात् राजा और उसकी माताको अपने महलमें भोजनके लिए भो आमन्त्रित किया और यशोधरने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया।

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