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उपासकाध्ययन
किये थे और सुदत्ताचार्यके साथ रहते थे । आचार्यने उन दोनोंको नगर में भोजनके लिए जानेका आदेश दिया । मार्ग में बलिके निमित्त एक मनुष्य युगलको लानेके लिए भेजे गये राजसेवकोंसे उनकी मुठभेड़ हो गयी । सेवकोंने उनसे बहाना किया कि आपके शुभागमनको जानकर एक महान् गुरु भवानीके मन्दिर में आपके दर्शनोंके लिए उत्सुक हैं अतः इस ओर पधारने की कृपा करें। सेवकोंकी भीषण आकृतिसे उन्हें किसी भावी अनिष्टको आशंका तो हुई, किन्तु सब कुछ दैवपर छोडकर वे दोनों मन्दिरकी ओर चल दिये ।
चण्डमारीके उस महाभैरव नामके मन्दिरका दृश्य बड़ा विचित्र था । बलिके लिए लाये गये सब प्रकार के प्राणियोंसे मन्दिरका आँगन भरा हुआ था । सशस्त्र रक्षक उनकी रखवाली के लिए नियुक्त थे । उनके शस्त्रोंको देखकर भेड़, भैंसे, ऊँट, हाथी और घोड़े दूरसे काँप रहे थे। अपने रुधिरके प्यासे राक्षसोंको देखकर मगर, मच्छ, मेढ़क, कच्छप आदि जलचर जन्तु त्रस्त थे । क्रौंच, चकवै, मुर्गे, जलकाक, राजहंस आदि विविध प्रकार के पक्षियोंको भी यही दशा थी। सिंह और भालू जैसे हिंसक जन्तुओं में भी भय छाया हुआ था । राजाके द्वारा मनुष्य-युगलका बलिदान होनेके पश्चात् इन सबका संहार होनेवाला था ।
दोनों मुनिकुमारोंने मन्दिरके आँगनके मध्य में तलवार खींचकर खड़े हुए राजा मारदत्तको देखा । उस समय वह ऐसा प्रतीत होता था मानो नदीके मध्य में कोई पहाड़ खड़ा है और उसपर फणा उठाये हुए एक सर्प बैठा है । वहाँ के भयानक वातावरणको देखकर अभयरुचिने धोरतापूर्ण दृष्टिसे अपनी बहनकी ओर देखा। उसके आशयको समझकर अभयमतिने भो निःशंकचित्तसे अपने भाईके मुखकी ओर देखा । भाई बहनकी ओरसे आश्वस्त हुआ ।
उधर मारदत्त दोनों मुनिकुमारोंको देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ, उसके लोचनोंसे कलुषता चली गयी, सब इन्द्रियाँ करुणरसमें निमग्न हो गयीं । उसने मुनिकुमारोंको आसनपर बैठाया और विचारने लगा, इन मुनिकुमारों को देखकर मेरा हृदय क्यों शान्त हो गया ? क्यों मेरा आत्मा आनन्दसे गद्गद हो रहा है, कहीं ये दोनों मेरे भानजा भानजी तो नहीं हैं ? उस दिन मैंने रैवतकसे सुना था कि वे दोनों कुमार अवस्थामें ही गृहत्यागी बन गये हैं ।
राजाकी परिवर्तित प्रसन्न मुद्राको देखकर दोनों मुनिकुमारोंने राजाको आशीर्वाद दिया । राजाने दोनोंकी आशीर्वादात्मक मधुरवाणीसे अति प्रसन्न होकर पूछा, "आपका कौन-सा देश है, किस कुलको आपने अपने जन्मसे शोभित किया है और बाल्यावस्था में हो आपने यह प्रव्रज्याका मार्ग क्यों स्वीकार किया ? कृपया बताने का कष्ट करें।"
मुनिकुमार बोला, "राजन् ! यद्यपि मुनिजनोंके लिए अपना देश, कुल और दीक्षाका कारण बतलाना उचित नहीं है तथापि कुतुहल हो तो सुनिए - [ प्रथम आश्वास ]
अवन्ती जनपद में उज्जैनी नामकी नगरी है । उसमें यशोर्घ नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम चन्द्रमती था। राजा यशोर्घ और रानी चन्द्रमतीके यशोधर नामका पुत्र था ।
एक दिन राजा यशोर्घने अपने सिर में एक सफेद बाल देखा और अपने पुत्र यशोधरके विवाह तथा राज्यारोहणका आदेश देकर साधु हो गये । बादको समारोहपूर्वक अमृतमतीके साथ यशोधरका विवाह हुआ और विवाहके पश्चात् राज्याभिषेक हुआ । [ द्वितीय आश्वास
तीसरे आश्वासमें राजा यशोधरकी दिनचर्या, राजव्यवस्था आदिका विस्तृत वर्णन है ।
एक दिन राजा यशोधर अपनी रानी अमृतमतीके महल में सोनेके लिए गया । मध्यरात्रि के समय उसने देखा कि उसकी रानी शय्या छोड़कर उठी । आँख मूंदकर लेटे हुए राजाकी ओर बड़े ध्यानसे देखा और उसे सोया हुआ जानकर अपने वस्त्राभूषण उतार दासीके वस्त्र पहनकर जल्दीसे महलसे निकल गयी । राजाको सन्देह हुआ। वह तुरत उठकर पंजोंके बल उसके पीछे-पीछे चल दिया ।
रानीने एक पीलवान के झोंपड़ेमें प्रवेश किया। उसका नाम अष्टवंक था। वह बड़ा ही बदसूरत और कुबड़ा था । रस्सीके ढेरपर सिर रखकर घासपर पड़ा सोया था। रानी उसके पैरोंके पास बैठ गयी और