Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तीसरा, गृहस्थ आदि के लिए समानभावेन आराधनीय होने से यह 'पागइया' यानि प्राकृतिक कहलाता है।
___इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं।
___इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर चार मास तक निवास करता है अतएव इसे वासावासवर्षावास कहा गया है।
कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् (वर्षा) काल में ही चातुर्मास करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है अतः इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं।
ऋतुबद्धकाल की अपेक्षा से इसकी मर्यादाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। अतएव यह ठवणा (स्थापना) है।
ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है किन्तु वर्षाकाल में चार मास का होता है अतएव इसे जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठावग्रह) कहा है।
अगर साधु आषाढ़ी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुंचा हो और वर्षावास की घोषणा कर दी हो तो श्रावण कृष्णा पंचमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपयुक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण कृष्णा पंचदशमी-अमावस्या को वर्षावास प्रारम्भ करना चाहिए। इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक तो वर्षावास प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हो तो वृक्ष के नीचे ही पर्युषणाकल्प करना चाहिए। पर इस तिथि का किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
___ वर्तमान में जो पर्युषणा कल्पसूत्र है, वह दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है। दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियां, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है। जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है।
दूसरी बात, दशाश्रुतस्कन्ध पर जो द्वितीय भद्रबाहु की नियुक्ति है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है. उसमें और उस निर्यक्ति के आधार से निर्मित प्रचलित है. उसके पदों की व्याख्या मिलती है श्री पुण्यविजय जी का अभिमत है कि दशाश्रुतस्कन्ध की चूर्णि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है।
कल्पसूत्र के पहले सूत्र में तेणं कालेणं तेण समएणं समणो भगवं महावीरे'..............और अंतिम सूत्र में............'भुजो भुज्जो उवदंसेइ' पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें उद्देशक (दशा) में है। यहां पर शेष पाठ को 'जाव' शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। वर्तमान में जो पाठ उपलब्ध है उसमें केवल पंचकल्याणक का ही निरूपण है, जिसका पर्युषणाकल्प के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः स्पष्ट है कि पर्युषणाकल्प इस अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र था। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाहु हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन ही है। वृत्ति, चूर्णि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र की टीकाओं से यह स्पष्ट प्रमाणित है।