Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
हुए थे। आशाधरके धर्मामृतने और उनकी उक्तियोंने उन्हें सुमार्ग में लगाया । बहुत संभव है कि कवि महेंद्दास पहले जैनधर्मानुयायी न होकर अन्य धर्मानुयायी रहे हों। यही कारण है कि उन्हें ब्राह्मणधर्म और वैदिक पुराणोंका अच्छा परिज्ञान है |
'दासो भवाम्यहंतः' पद्यसे भी यही ध्वनित होता है। श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि अदास नाम न होकर विशेषण जैसा है। उन्होंने लिखा है - " चतुर्विंशतिप्रबन्धको पूर्वोक्त कथाको पढ़नेके बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकीति हो तो कुमार्ग में ठोकरें खाते-खाते अन्तमें आशाधरको सूक्तियोंसे अद्दास न बन गये हों । पूर्वोश ग्रंथोंमें जो सव किये गये हैं उसे तो इस कल्पनाको बहुत पुष्टि मिलती है और फिर यह अहंदास नाम भी विशेषण जैसा ही मालूम होता है। संभव है उनका वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । यह नाम एक तरह की भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है" ।" 'प्रेमी' जीने मदन कीर्तिको ही विशालकीर्ति और आशाधरकी प्रेरणासे अहंदासके रूपमें परिवर्तित स्वीकार किया है, पर पुष्ट प्रमाणोंके अभाव में प्रेमीजीके इस कथनको स्वीकार नहीं किया जा सकता । तथ्य जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि अहासको आशाधर के ग्रन्थों और वचनोंसे बोध प्राप्त हुआ है ।
स्थितिकाल
sa अदासने मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यकण्ठाभरण में आशाधरका निर्देश दिया है | आशा धरने वि० सं० १३०० में अनगारधर्मामृतकी टीका पूर्ण की थी। अतः कवि अर्हदास आशाधरके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं। अब विचारणीय यह है कि वे आशाधरके समकालीन हैं या उनके पश्चात्वर्त्ती विद्वान् हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों में आशाधरका उल्लेख जिस रूपमें किया है उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे आशाधरके समकालीन रहे हों ।
मुनिसुव्रतकाव्य की प्रशस्ति
मिथ्यात्वकर्म पटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशोः कुपथयान निदानभूते ॥ आशाधरोक्तिलसदंजन संप्रयोगेरच्छीकृते पृथुल सत्पथमाश्रितोऽस्मि ||१०|६५॥
अर्थात् मेरे नयन-युगलं चिरकालसे मिथ्यात्वकर्मके पटलसे टके हुए थे और मुझे कुमार्ग में ले जाने में कारण थे। आशावर के उक्तिरूपी उत्तम अंजनसे उनके स्वच्छ होनेपर मैंने जिनेन्द्रदेव के महान् सत्पथका आश्रय लिया । १. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पू० १४२-४३ ।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४९