Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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नागकुमारचरित सरल और बोधगम्य शैलीमें लिखा गया काव्य है। इसका काव्य और इतिहासकी दृष्टि से अधिक मूल्य है ।
गुणभद्र द्वितीय गुणभद्र नामके कई जैनाचार्य हुए हैं। सेनसंघो जिनसेन स्वामीके शिष्य और उत्तरपुराणके रचयिता प्रथम गुणभद्र हैं और प्रस्तुत धन्यकुमारचरितके कर्त्ता द्वितीय गुणभद्र हैं। द्वितीय गुणभद्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि वे म.णिक्यसेनके प्रशिष्य और नेमिसेनके शिष्य थे । ये सिद्धान्सके विद्वान् थे। मिथ्यात्व तथा कामके विनाशक और स्याद्वादरूपी रत्नभूषणके धारक थे । इन्होंने राजा परमादिके राज्यकालमें विलासपुरके जैन मन्दिरमें रहकर लम्बकंचुक वंशके महामना साहू शुभचन्द्रके पुत्र वल्हणके धर्मानुरागसे धन्यकुमारचरितको रचना की थी।
ग्रन्धकी प्रशस्तिमें परमादिका नाम आता है। डा. ज्योतिप्रसादजीने परमादिका निर्णय करते हुए लिखा है-"दसवीं-चौदहवीं शतीके बीच दक्षिण भारतमें गंग, पश्चिमी चालुक्य, कलचुरी परमार आदि अनेक वंशोंके किन्हींकिन्हीं राजाओंका उपनाम या उपाधि पेर्माडि, पेम्भडि, पेविडि, पेर्माडिरेक, पेमडिराय आदि किसी-न-किसी रूपमें मिलता है, किन्तु 'परमादिन' रूपमें कहीं नहीं मिलता। उत्तर भारत में महोबेके चन्देलोंमें चन्देल परमाल एक प्रसिद्ध नरेश हुआ है । वह दिल्ली, अजमेरके पृथ्वीराज चौहानका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था और सन् १९८२ ई० में उसके हाथों पराजित भी हुआ था। ११६७ ई० से बुन्देलखण्डके जैन शिलालेखोंमें इस राजाका नामोल्लेख मिलने लगता है और १२०३ ई० में उसकी मृत्यु हुई मानी जाती है। यह राजा चन्देलनरेश मदन वर्मदेवका पौत्र एवं उत्तराधिकारी था। इसके पिसाका नाम पृथ्वीवर्मदेव था और उसके उत्तराधिकारीका नाम त्रैलोक्यवर्मदेव था । इसके अपने शिलालेखोंमें इसका नाम 'परमादिदेव' या ‘परमादि' दिया है, जो कि धन्यकुमारचरितमें उल्लिखित परमादिन' से भिन्न प्रतीत नहीं होता।"
इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि गुणभद्रने धन्यकुमारचरितको रचना चन्देलपरमारके राज्यमें १२ वीं या १३ वीं शतीमें की होगी। विचारके लिए जब माणिक्यसेन और नेमिसेनके सेनसंघी नामोंको लिया जाता है तो एक ही माणिकसेनके शिष्य नेमिसेन मिलते हैं, जिनका निर्देश शक सं० १५१५ के प्रतिमालेखमें पाया जाता है। सम्भवतः ये कारंजाके सेनसघी भट्टारक थे। १. जैन सन्देश, शोधांक ८, २८ जुलाई १९६०, पृ० २७५ ।
याचार्यतुल्य काव्यफार एवं लेखक : ५९