Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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आगमविलासके प्रारम्भ में १५२ सवैथा-छन्दों में सैद्धान्तिक विषयोंको चर्चा है । अतः सैद्धान्तिक विषयोंकी प्रधानताके कारण ही इस रचनाका नाम आगमविलास रखा गया है ।
भेदविज्ञान या आत्मानुभव यह कविकी एक अन्य रचना है । कविने इसमें जीवद्रव्य और पुद्गलादि द्रव्योंका विवेचन किया है। कविका विश्वास है कि आत्मतत्त्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। आत्मतस्वके उपलब्ध होते ही विषयरस नीरस प्रतीत होने लगते हैं ।
मैं एक शुद्ध शानी, निर्मल सुभाव ज्ञाता,
दुग ज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी ।
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अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ||
कवि धार्मिक प्रवृत्तिका लेखक है; पर व्यवहार और काव्यतत्वोंकी कमी नहीं आने पाई है । संसारकी सजीवताका चित्रण करते हुए लिखा हैरूजगार बने नाहि धनतौं न घर माहि
खानेकी फिकर बहु नारि चाहे गहना | देनेवाले फिरि जाँहि मिले तो उधार नाहि कोळ
साझी मिले चोर धन आवें नाहि लहना । पूत ज्वारी भयो, घर माहि सुत थयो, एक पूत मरि गयो ताको दुःख पुत्री वर जोग भई ब्याही सुता जम लई,
सहना ।
एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना ||
१.
धानतका सुत लालजी, चिट्ठे ल्याओ पास | सो ले शालूको दिए, आलमगंज सुवास ।१३।। तासे पुनसे सकल ही, चिट्ठे लिये मँगाय । मोती कटले मेल है, जगतराय सुख पाय || १४ || तब मन माँहि विचार, पोथी किन्ही एक ठी । जोरि पढ़े नर नारि, धर्म ध्यानमें थिर रहें ||१५|| संवत सतरह से चौरासी, माघ सुदी चतुर्दशी मासी । तब यह लिखत समाप्त कीन्हों, मैनपुरीके माहि नवमी ॥ १६ ॥
आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : २७९