Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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के सभी आख्यान नायकोंके जीवनमें कलात्मक शैलीमें गुम्फित्त किये गये हैं। पुनर्जन्म, आत्माका अमरत्व, कर्मसंस्कारोंका प्रभाव, आत्म-साधना आदिका भी चित्रण किया गया है।
इस प्रकार तृतीय खण्डमें आचार्यों द्वारा पुराण और काव्योंका गुम्फन भी हुआ है । वास्तबमें प्रबुद्धाचार्योंने प्राचीन आगमोंसे आख्यानतत्व ग्रहण कर प्रथमानुयोगसम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी हैं ।
परम्परापोषक आचार्यों में भट्टारकोंकी गणना की गयी है । इन्होंने मन्दिरमूर्ति-प्रतिष्ठा, साहित्य-संरक्षण और साहित्यप्रणयन द्वारा जैन संस्कृतिका प्रचारप्रसार करने में अद्वितीय प्रयास किया है । बृहत् प्रभाचन्द्र, भास्करनन्दि, ब्रह्मदेव, रविचन्द्र, अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, पपनन्दि, सकलकीर्ति, भुवनकोति, ब्रह्म जिनदास, सोमकोति, ज्ञानभूषण, अभिनव धर्मभूषण, विजयकीति, शुभचन्द्र, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, सुमत्तिकीर्ति, श्रुतसागर, ब्रह्मनेमिदत्त, श्रुतकीर्ति, मलयकीर्ति प्रभृति भट्टारकोंने मन्त्र-तन्त्र, आचारशास्त्र, काव्य, पुराण विषयक रचनाएँ लिखा ालीन र गागों और हलोको प्रभाटिन किया है । इसमें सन्देह नहीं कि परम्परापोषक आचार्याने वाङ्मयके प्रणयनमें अभूतपूर्व कार्य किया है । ह्रासोन्मुखी प्रतिभाके होनेपर भी सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, श्रुतसागरसूरि, रत्नकीर्ति आदि ऐसे भट्टारक हैं, जिन्होंने विपुल ग्रंधराशिका निर्माण कर वाङ्मयको अभिवृद्धिमें अपूर्व योगदान किया है ।
इस तृतीय खण्डमें भट्टारकीय परम्परा द्वारा प्राप्त सामग्रीका सर्वांगीण विवेचन करनेका प्रयास किया गया ।
चतुर्थ खण्डमें संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल और मराठी भाषाके जैन कवियों द्वारा लिखित साहित्यका लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है । इन भाषाओंके शताधिक कवियोंने रस, गुण समन्वित काव्योंकी रचना की है। यह खण्ड कवियोंके इतिवृत्तको अवगत करनेकी दृष्टि से उपादेय है। इस प्रकार प्रस्तुत 'तीर्थकर महावीरकी आचार्यपरम्परा' ग्रन्थमें ऐसे आचार्यों और लेखकोंके इतिवृत्तोपर प्रकाश डाला गया है, जिन्होंने वाङ्मयकी सेवा की है। आचार्यो द्वारा प्रभावित राजवंश और सामन्त
दिगम्बर जैनाचार्योने विभिन्न राजवंशों और राजाओंको प्रभाषित कर जैन शासनका उद्योत किया है। राजाओंके अतिरिक्त अमात्य, सामन्त एवं सेनापतिओंने भी शासनके प्रचार एवं प्रसारमें योगदान किया है।
आचार्य भद्रबाहुके शिष्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तने उज्जयिनीमें श्रमण३४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा