Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गण्य, पत्थर की बनी सरस्वतीको बुलवानेवाले श्री कुन्दकुन्दाचार्यके वंशमें भट्टारक श्रीविद्यानंदी, श्रीमल्लिभूषण, श्रीलक्ष्मीचन्द्र और श्रीवीरचन्द्रके, संप्रति विद्यमान बिजयराज्यमें श्रीज्ञानभूषणरूपी सरोजके लिए चंचरीक भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्र गुरुके ||२८||
उनके पट्टरूपी कमलके लिए बालसूर्य, परमतवादीरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करनेमें सिंहके समान, स्वदेश और परदेश में ख्यातिप्राप्त, पाँच मिथ्यात्वस्वरूप पर्वतके शिखरको नष्ट-भ्रष्ट करनेमें प्रचंड विजलीके समान, चलतेफिरते कल्पवृक्ष- स्वरूप, कलिकालमें गौत्तमावतार रूप लावण्य और सौभाग्यसे युक्त, अपने वचनकी चातुरीसे इन्द्रको विस्मयमें डालनेवाले, महाबाद-वादीश्वर, राजगुरु, भूमण्डलके आचार्य, हंबडकुलके शृंगारहार, भट्टारक श्रीवादिचन्द्रके ॥२९॥
तत्पट्टंकसम्पूर्णचन्द्रस्वराद्धान्तविद्योत्कटप रवादिगजेन्द्रगवं स्फोटनप्रबलेन्द्रमृगेकृतिर्कादिपठनपाठनसामथ्र्यंप्रोत्थकीत्तिवल्ल्याच्छादित बंगांग तिलंगगुर्जरन वसहस्रदक्षिणवाग्वरादिदेशमण्डपानां, महावादीश्वरश्रीमन्मूलसंघशृंगारहार श्रीमद्वादिचन्द्र पट्टो दयाद्विबालदिवाकराणां, त्रिजगज्जनाह्लादनप्रकृष्टप्रज्ञाप्रागल्भ्याभिनववादीन्द्रसकलमहत्तममहतीमहीमहतामहस्क (?) महन्महीपतिमतिश्रीमही चन्द्रभट्टारकाणाम् ||३०||
तत्पट्टोदयाद्रि बाल विभाकरविद्वज्जनसभामण्डनमिथ्या मत खण्डनपण्डितानाम्, परवादिप्रचण्डपर्वतपाटनपवीश्वराणां भव्यजनकुमुदवन विकाशन शशधरधर्म्मामृतवर्ष णमेघानां लघुशाखाहुबडकुलश्रृंगारहारडिल्लीगुज्जरसिंहासनाधीशबलात्कार
गणविरुदावलीविराजमानभट्टारकश्रीमेरुचन्द्रगुरूणाम् ||३१||
प
सकलसिद्धान्तप्रतिबोधितभव्यजनहृदयकमलविकाशनैकबालभास्कराणां, दशविधधर्मोपदेशनवचनामृतवर्षंणतपितानेकभञ्यसमूहानां श्रीमन्मेरुचन्द्रपट्टोद्धरणश्रीमच्छ्री मूलसंघ - सरस्वतीगच्छबलात्कारगणविरुदावलीविराजमानभट्टारकवरेण्यभट्टारक श्रीजिन- चन्द्रगुरूणां तपोराज्याभ्युदयार्थं भव्यजनैः क्रियमाणे श्रीजिननाथाभिषेके सर्वे जनाः सावधानाः भवन्तु ||३२||
धीराणां,
उनके पट्टको (सुशोभित करनेके लिए एकमात्र पूर्णचन्द्र अपने सिद्धान्तकी विद्यामें उत्कट, परमतवादी रूपी गजेन्द्रके गर्वको फोड़नेवाले प्रबल मृगेन्द्र सदृश, अखिल अद्वय (अद्धत) शब्दको सुने हुए, छन्द - अलंकार - काव्या तर्क आदिके पठनपाठनकी सामर्थ्य रखनेके कारण फैली हुई कीर्तिलतासे बंग-अंग तैलंग- गुर्जर नवसहस्र दक्षिण, वाग्वर आदि देशरूपी मंडपको आच्छादित करनेवाले (?) महा४४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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