Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 453
________________ सोलह वर्ष तक शाक-पाक, पक्वान्न, शालोका भात और घी आदि रसयुक्त आहारको छोड़नेवाले, दुश्चारादि (?) के सम्पूर्ण गर्वरूपी पर्वतको चूर्ण करने में बचके सदृश, प्रथम-वचनका खंडन करने में पंडित, व्याकरण-प्रमेयकमलमार्तण्डछंद-अलङ्कार-सार-साहित्य-संगीत-सम्पूर्ण-सर्क-सिद्धान्त और आगमशास्त्ररूपी समुद्रके पारंगत, सम्पूर्ण मूलोत्तरगुणरूपी मणियोंसे भूषित, विद्वानोंमें श्रेष्ठ धीवीरचन्द्र भट्टारकके ॥२६॥ __उनके पट्ट (गद्दी) रूपी उदयाचलपर उदित सूर्यके समान, सम्पुर्ण विद्धन्मण्डलीके चूड़ामणि, सभी भव्यजनोंके हृदयरूपी कुमुद-बनको विकसित करनेके लिए रजनीपति, परम औ स्थाद्वादन निष्णात, सुख सम्यक्त्वको प्राय, जात और मृत (?) अभिमानी मिथ्यावादियोंके मिथ्यावचनरूपी महोघरों (पर्वतों) के शृंगको तोड़ने में प्रचंड विद्युत्दण्डके सदृश, संस्कृत आदि आठ महाभाषारूपी जलपरहेतुक छटाद्वारा भव्यजनरूपी मयूरादि पक्षियोंको तृप्त करनेवाले, चौरासी वादियोंमें विराजमान, प्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुदचन्द्रोदय-राजवात्तिकालकारश्लोकवात्तिकालंकार-आप्तपरीक्षा परीक्षामुख-पत्रपरीक्षा-अष्टसहस्री- प्रमेयरत्नमाला आदि अपने मतके प्रमाणरूपी चन्द्रमणिको कण्ठमें धारण करनेवाले, किरणावली-वरदराज-चिंतामणि प्रभृति परमतमें, ऐन्द्र, चान्द्र, माहेन्द्र, जैनेन्द्र काश,कृत्स्न,कापालक और महाभाष्यादि शब्दशास्त्रमें, गोम्मटसार, प्रैलोक्यसार, लब्धिसार, क्षपणसार और जम्बूद्वीपादि पंचप्रज्ञप्ति-प्रभृति परम आगमशास्त्रोंमें प्रवीण, अनेक देशोंके नरनाथ, नरपति, अश्वपति, गजपत्ति और यवन अधिपतियोंकी सभाओंमें सम्मान प्राप्त करनेवाले, श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके कल्याणसे पवित्र किये हुए, श्री उज्जयन्त, शत्रुजय, तुगीगिरि, चूलगिरि आदि सिद्धक्षेत्रोंकी यात्रासे अपने चरणोंको पवित्र किये हुए, अंगदेशके वादियोंको भग्न करनेवाले, कलिंग देशके वादीरूपी कपुरके लिए भयंकर अग्निके समान, काश्मीरके वादीरूपी.कदलीके लिए तलवारके समान, नेपालके वादियोंको शाप और अनुग्रह करनेकी शक्ति रखनेवाले, गुजरातके वादिओंको दण्ड देनेवाले, गौड़ (बंगालका हिस्सा) के वादीरूपी गंडमेरुदण्ड पक्षीको दण्ड देनेवाले, हम्मीर (राजा) के वादियोंके लिए ब्रह्मराक्षसके सहश, चोलके वादियोंमें महान कोलाहल मचानेवाले, द्रविड़ वादियोंको पाटन देनेवाले, तिलंगवादियोंको लांछित करनेवाले, दुस्तर (कठिन) वादियोंके लिए मस्तकशूल रोगके समान, कोंकण देशके वादियोंके लिये उत्कट बातमूल रोगके समान, व्याकरण शास्त्रके वादियोंको चकनाचुर करनेवाले, तर्कशास्त्रके वादियोंको गेहूंका आटा बनानेवाले, साहित्यके वादि-समाजके लिए सिंहसदृश, ज्योतिषके बादियोंको भूमिसात् करनेवाले, मंत्रवादियोंको यन्त्र (कोल्हू) में डालनेवाले, ४३८ : तीर्थंकर महावीर मौर उनकी आचार्यपरम्परा

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