Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार पञ्चम कालका प्रभाव मुनियोंके प्रभावको रोककर उनके धर्म-कार्यमें बाधा पहुँचाने लगा।
५८-५९. जिनके अङ्गोंके खिन्न होने पर व्रतादिक नियम ज्यों-के-त्यों बने रहे, उस महात्माने मोक्षमें रुचि, धर्ममें हर्ष और हृदयमें शान्तिको अव. धारित किया।
६०. अनन्तर महात्माने अपने शरीरमें रोगको बढ़ते हुए देखकर और उसको असाध्य समझकर अपने ज्येष्ठ भ्राताके निकट आकर प्रणाम करके कहा।
६१-६२. हे पण्डितप्रवर योगिराज ! आपकी कृपासे मैंने सभी दोषोंको प्रक्षालित किया, यशको विस्तृत किया और बहु ससे व्रतोंको किया, परन्तु रोगग्रस्त शरीर रहनेकी अपेक्षा अब इस भूतल में नहीं रहना ही अच्छा है ।
६३. मनिने संघको भी ऐसी सूचना देकर संघके बार बार रोकने पर भी अन्तिम क्रिया-सल्लेखनाको सम्पादित कर अन्तिम समाधि लगायी ।
६४ भयङ्कर विपत्तिरूप ग्रहादि जीवोंसे तथा मृत्युरूपी लहरोंसे युक्त व्यग्रतारूपी समुद्रके बीच में गिरकर यह जीव रात-दिन क्लेशको पा रहा है।
६५. दिगम्बर जैन तथा सभी देहधारियों के लिए यह दुःखमय शरीर त्याज्य ही समझना चाहिये । इसीसे मनि-गण पुनर्जीवन रोकने के लिए काय-कष्टकर अनेक तपस्यायें करते हैं। __६६ यह विषय-सञ्चय भीषण दोषका स्थान समझना चाहिए । इसलिए सहिष्ण विवेकी सांसारिक विषयको छोड़कर विविध कर्मको नष्ट करनेके लिए अक्षयपदको प्राप्त होते हैं।
६७. बड़े उद्दीप्त दुःखाग्निसे तप्त, अनेक रोगोंसे युक्त और माला, पन्दन आदि विषम पदार्थोसे संबलित इस शरीरके धारण करनेसे ससारमें क्या लाभ है?
६८. पापमयी स्त्रीकी सृष्टिसे क्या ? शरीरके नीचे सृष्टि करनेसे क्या प्रयोजन ? और पुत्रादिकोंमें शत्रुता क्यों रख छोडी गयी ? इसलिए मैं समझता हूँ कि ब्रह्माकी सृष्टि व्यर्थ ही है। ____६९. पहले बाल्यावस्था ही दुःखका बीज है, तत्पश्चात् युनावस्थाको भी रोगका अड्डा ही समझना चाहिए और वृद्धावस्थाको भी ऐसा ही विषमय समझकर यह मानना पड़ता है कि इस शरीरकी दशा ही विपत्ति-परिणामको दिखानेवाली है। ७०. प्राक्तन जन्मके पुण्यसे मैंने सुन्दर शरीर, सुन्दर मनुष्य-जन्म तथा
पट्टावली : ४२३