Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 434
________________ ५. इनके रहते-रहते मुनियोंसे वंदित श्रेष्ठ संघाधिपति श्रीमान् गौतम मुनि हुए। ६.८, इन्हीके समुज्ज्वल बंशमें समुद्रसे चन्द्रमाके समान यतिराज श्री भद्रबाहुस्वामी हुए 1 इनकी कीर्ति तथा सिद्धशासन भूमण्डलमें व्याप्त थे। यद्यपि भद्रबाहुस्वामी श्रुतकेवली, मुनीश्वरों श्रुतकेलियों)के अन्तमें हुए, तो भी ये सभी पण्डितोंके नायक तथा श्रुत्यर्थ प्रतिपादन करनेसे सभी विद्वानोंके पूर्ववर्ती थे। ९-१०. इन्होंके शिष्य शीलवान् श्रीमान् चन्द्रगुप्त मुनि हुए। इनकी तीव्र तपस्या उस समय भूमण्डलमें व्याप्त हो रही थी। इन्हींके वंश बहुतसे यतिवर हुए, जिनमें प्रखर तपस्या करनेवाले, मुनीन्द्र कुन्दकुन्दस्वामी हुए। ११-१३. तत्पश्चात् सभी अर्थको जाननेवाले उमास्वातिनामके मुनि इस पवित्र आम्नायमें हुए, जिन्होंने श्री जिनेन्द्र-प्रणीत शास्त्रको सूत्ररूपमें रूपान्तर किया। सभी पियोंके का सहारा होगी उमास्वाति मुनिने गृध्रपक्षको धारण किया। तभीसे विद्वद्गण उन्हें गृध्रपिच्छाचार्य कहने लगे। इन योगी महाराजको परम्परामें प्रदीपरूप महर्द्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए। इनके शरीरके संसर्गसे विषमयो ह्वा भी उस समय अमृत (निर्विष) हो जाती थी। १४. इसके बाद जिनशासनके प्रणेता भद्मूर्ति श्रीमान् समन्तभद्रस्वामी हुए। इनके वाग्वनके कठोर पातने वादिरूपी पर्वतोंको चूर्ण-चूर्ण कर दिया था। १५-१७. इनकी परम्परामें श्री धर्मराज पूज्यपाद स्वामी हुए, जिनके बनाए हुए शास्त्रोंमें जैनधर्मका बहुत ही महत्त्व मालूम होता है। इन्होंने निरन्तर कृतकृत्य होकर संसार-हितैषिणी बुद्धिको धारण किया। अनंगके ताप हरने. वाले साक्षात् जिनभगवानके जैसे विदित होनेसे लोगोंने इनका नाम जिनेन्द्र' रखा । औषधशास्त्रमें परम प्रवीण, विदह-जिनेन्द्रदर्शनसे पवित्र होनेवाले श्रीमान् पूज्यपाद मुनि जयशाली रहें। इनके चरणकमलके धौत जलके संसर्गसे कृष्ण-लोहा भी सुवर्ण हो जाता था। १८-१९ इनके बाद शास्त्रवेत्ता मुनियोंमें अग्रेसर अकलंकसूरि हुए। इन्हीके वाङ्मयरूपी किरणोंसे मिथ्यांधकारसे आच्छादित अर्थ संसारमें प्रका. शित हुआ। इनके स्वर्ग जानेपर इनकी परम्पराके मुनिसंघोंमे कई भेद २०. इनके बाद श्रीमान् योगी जिनेन्द्र भगवान् अविरुद्ध वृत्तिवाले चार संघोंको पाकर परस्पर समान चार मुखके ऐसे उन्हें समझकर शोभने लगे। पट्टावली : ४१९

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