Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विवेकसे शान्त करता है । वह कर्मफलों में आसत्ति नहीं रखता इस प्रकार पुरातन संचित कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और किसी नये कमका स्थिति - अनुभागबन्ध नहीं होता है । आत्म-सत्ताको श्रद्धा करनेवाला निष्ठावान् व्यक्ति संयम, विवेक, तपश्ररणके कारण कर्मबन्धकी प्रक्रिया से छुटकारा प्राप्त करता है । पर मिध्यादृष्टि देहात्मवादी नित्य नई वासना और आसक्तिके कारण तीव्र स्थिति और अनुभागबन्ध करता है। जो जोव पुरुषार्थी, विवेकी और आत्मनिष्ठावान् है, यह निर्जरा, उत्कर्ष, अपकर्ष, संक्रमण आदि कर्मकरणको प्राप्त करता है, जिससे प्रतिक्षण बन्धनेवाले बच्छे या बुरे कर्मोंमें शुभभावोंसे शुभकमोंमें रसप्रकर्षं स्थित होकर अशुभकमोंमें रसहीनता एवं स्थितिच्छेद उत्पन्न होता है।
श्रुतवराचायने कर्मसिद्धान्तके अन्तर्गत प्रतिसमय होनेवाले अच्छे-बुरे भावोंके अनुसार तीव्रतम तीव्रसर, तीव्र, मन्द मन्दन्तर और मन्दतम रूपों में कर्मकी विपाक स्थितिका वर्णन किया है । संसारी आत्मा कर्मोके इस विपाकके कारण ही सुख-दुखका अनुभव करती है। यह भौतिक जगत पुद्गल एवं आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है । जब कर्मका एक भौतिक पिण्ड अपनी विशिष्ट शक्ति के कारण आत्मासे सम्बद्ध होता है तो उसकी सूक्ष्म एवं तीव्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं और प्राप्त सामग्री के अनुसार उस संचित कर्म का तीव्र, मन्द और मध्यम फल मिलता है ।
कर्म और आत्माके बन्धनका यह चक्र अनादि कालसे चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक बन्धहेतु रागादिवासनाओंका विनाश नहीं होता । श्रुतघर आचार्य कुन्दकुन्दने बत्ताया है
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं मावो संसारचक्कवालम्मि | इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिषणो सणिघणो वा ॥ " श्रुतघराचार्योंने स्पष्टरूपसे बताया है कि आत्मा अनादिकाल से अशुद्ध है, पर प्रयोग द्वारा इसे शुद्ध किया जा सकता है। एकबार शुद्ध होनेपर फिर इसका अशुद्ध होना संभव नहीं, यतः बाधक कारणोंके नष्ट होनेस पुनः अशुद्धि आत्मामें
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१. पञ्चास्तिकाय कुन्दकुन्द भारती श्रुतमण्डल ग्रंथ प्रकाशन समिति, फल्टन सन् १९७०, गाथा - १२८ से १३० तक |
आचार्य तुल्म काव्यकार एवं लेखक : ३२७