Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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afant पंडित बिहारीदास और पण्डित मानसिंह के धर्मोपदेशसे जैनधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। इन्होंने सं० १७७७ में श्री सम्मेदशिखरकी यात्राकी थी । इनका महान ग्रन्थ 'धर्मविलासके' नामसे प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में ३३३ पद, अनेक पूजाएँ एवं ४५ विषयोंपर फुटकर कविताएं संग्रहीत हैं । कविने इनका संकलन स्वयं वि० स० १७८० में किया है। काव्य-विषाकी दृष्टिसे खानस - विलासकी रचनाओंको निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. पद
२. पूजापाठ - भक्ति स्तोत्र और पूजाएं ।
३. रूपक काव्य
४. प्रकीर्णक काव्य
पद - इनके पद साहिब १ बधाई १ वन ३ आय-प ४. आश्वासन, ५. परत्वबोधक, ६. सहज समाधिकी आकांक्षा इन षट् श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता हैं । बधाई सूचक पदों में तोर्थंकर ऋषभनाथ के जन्मसमयका आनन्द व्यक्त किया है। प्रसंगवश प्रभुके नख-शिखका वर्णन भी किया गया है । अपने इष्टदेव के जन्म समयका वातावरण और उस कालकी समस्त परिस्थितियोंका स्मरण कर कवि आनन्दविभोर हो जाता है और हर्षोन्मत्त हो गा उठता है
माई आज आनन्द या नगरी ॥ टेक ॥
गजगमनी, शशिवदनी तरुनी, मंगल गावति हैं सगरी ॥ माई० || नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचक रो || माई०|| 'द्यानत' घन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पग री || माई० ||
कविके पदोंकी प्रमुख विशेषता यह है कि तथ्यों का विवेचन दार्शनिक शैलीमें न कर काव्यशैलीमें किया गया है । "रे मन भजभज दीन दयाल, जाके नाम लेत इक खिनमें, कटै कोटि अघजाल" जैसे पदों द्वारा नामस्मरणके महत्त्वको प्रतिपादित किया है।
प्रकीर्णक काव्य - प्रकीर्णक-काव्य में उपदेशशतक, दानबावनी, व्ययहारपच्चीसी, पूर्ण पंचाशिका आदि प्रधान हैं । उपदेशशतकमें १२१ पच हैं । कविने आत्मसौन्दर्यका अनुभव कर उसे संसारके समक्ष इस रूपमें उपस्थित किया है, जिससे वास्तविक आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान सहज में हो जाता है।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७७